काव्य कोडियां ‘मरीज़’ – खले है

अनुवाद, मरीज़

ડંખે છે દિલને કેવી એક અક્ષર કહ્યા વિના,
રહી જાય છે જે વાત સમય પર કહ્યા વિના.

ઊર્મિ પૃથક્ પૃથક્ છે, કલા છે જુદી જુદી,
સઘળું કહી રહ્યો છું વિધિસર કહ્યા વિના.

લાખો સિતમ ભલે હો, હજારો જુલમ ભલે,
રહેવાય છે ક્યાં આપને દિલબર કહ્યા વિના.

કેવી જગતની દાદ મેં માગી પ્રકાશની,
હીરાને જે રહે નહીં પથ્થર કહ્યા વિના.

દુનિયાનાં બંધનોની હકીકત છે આટલી,
હું જઈ રહ્યો છું રૂપને સુંદર કહ્યા વિના.

જોયા કરો છો કેમ તમે મારા મૌનને,
શું મેં કશું કહ્યું છે ખરેખર કહ્યા વિના.

સાંભળ, જરાક ધ્યાન દઈ દેહનો અવાજ,
ધસ્તા નથી અહીં એ કદી ઘર કહ્યા વિના.

એ વાત અગર મૌન બને તો જુલ્મ બને,
ચાલે નહીં જે વાત ઘરેઘર કહ્યા વિના.

દુનિયામાં એને શોધ ઇતિહાસમાં ન જો,
ફરતા રહે છે કઈંક પયગમ્બર કહ્યા વિના.

તૌબાની શી જરૂર કે મસ્તીમાં ઓ ‘મરીઝ’,
છૂટી પડે છે હાથથી સાગર કહ્યા વિના.


~ મરીઝ ~



खले है दिल को कैसे एक लफ़्ज़ कहे बिना,
रह जाती है जो बात वक़्त पर कहे बिना।

उर्मि पृथक् पृथक् है, कलाएँ अलग अलग,
सब कह रहा हूँ बाकायदा कहे बिना।

लाखों सितम भले हों, हज़ारों ज़ुल्म भले,
रहा कहाँ जाता है आपको दिलबर कहे बिना।

कैसी दुनिया से दाद मैंने मांगी प्रकाश की,
हीरे को जो रहे नहीं पत्थर कहे बिना।

दुनिया के बंधनों की हक़ीक़त है इतनी,
मैं देख रहा हूँ रूप को सुंदर कहे बिना।

देखते रहते हो क्यों तुम मेरी ख़ामोशी,
क्या मैंने कुछ कहा है सचमुच कहे बिना।

सुन, ज़रा ध्यान से देह की आवाज़,
आ गिरते नहीं यहाँ कभी ये घर कहे बिना।

वो बात अगर मौन बने तो ज़ुल्म बने ,
चले नहीं जो बात हर घर कहे बिना।

दुनिया में उसे ढूंढ इतिहास में मत देख,
फिरते रहते हैं कई पैग़म्बर कहे बिना।

तौबा की क्या ज़रुरत कि मस्ती में ओ ‘मरीज़’,
बिखरती है हाथ से सागर कहे बिना।

~ मरीज़ ~

काव्य कोडियां ‘मरीज़’ – साधना जब

अनुवाद, मरीज़

સાધના જ્યારે જીવનની રાગિણી થઇ જાય છે,
રાતના અંધકારમાં એક રોશની થઈ જાય છે.

કલ્પનામાં જેટલી રખડે છે રેખા રૂપની,
જ્યાં કરું છું સંગઠિત તારી છબી થઇ જાય છે.

સુખમાં પણ એવી અસર હોતે તો આનંદ આવતે,
દુઃખની વાતા સાંભળીને દિલ દુઃખી થઇ જાય છે.

આદમીની એ મુસીબત મોતથી પણ છે વિશેષ,
જિંદગી પેાતાની જ્યારે પારકી થઈ જાય છે.

કોઈ એક દિનમાં સુખી થાતું હશે કોને ખબર,
પણ, છે જોયું કંઈક એક દિનમાં દુ:ખી થઈ જાય છે.

આ બધા નિષ્ફળ પ્રસંગો આ બધા ફિકા બનાવ,
થાય છે જો સંકલિત ત્યાં જિંદગી થઈ જાય છે.

આ હતાશા લઇને શું બેસી રહ્યો છે બહાર જા,
થોડું પાણી ઘરમાંથી નીકળી નદી થઈ જાય છે.

પ્રેમ કેવો ! એ બધી ભ્રમણા હતી કિંતુ ‘મરીઝ’,
કોઇ આવે છે તો થોડી દિલ્લગી થઇ જાય છે.

~ મરીઝ ~


साधना जब जीवन की रागिनी हो जाए,
रात के अँधेरे में एक रौशनी हो जाए।

ख़यालों में जितनी भटकती हैं रेखाएं रूप की,
जहाँ करूँ इकट्ठी तुम्हारी छवी हो जाए।

सुख में भी ये असर होता तो ख़ुशी होती,
दुःख की बातें सुनकर दिल दुःखी हो जाए।

आदमी की ये मुसीबत है मौत से भी बढ़कर,
ज़िंदगी अपनी जब परायी जो जाए।

कोई एक दिन में सुखी होता होगा किसे पता,
पर, देखे हैं कितने एक दिन में दुःखी हो जाए।

ये सारे नाकाम प्रसंग ये सारे फीके संजोग,
होते हैं जो संकलित वहाँ ज़िंदगी बन जाए।

ये निराशा लेकर क्या बैठे हो बाहर निकलो,
थोड़ा पानी घर से निकले तो नदी बन जाए।

प्यार कैसा! वो सारे भरम थे पर ‘मरीज़’,
कोई आए तो थोड़ी दिल्लगी हो जाए।

~ मरीज़ ~

काव्य कोडियां ‘मरीज़’ – नहीं वो बात

अनुवाद, मरीज़

નથી એ વાત કે પહેલાં સમાન પ્રીત નથી,
મળું હું તમને તે એમાં તમારું હિત નથી.

હવે કહેા કે જીવન-દાસ્તાન કેમ લખાય?
અહીં તો જે જે પ્રસંગેા છે સંકલિત નથી.

થયો ન હારનો અફસોસ કિંતુ દુઃખ એ રહ્યું,
કે મારા આવા પરાજયમાં તારી જીત નથી.

મળે ન લય તો ધમાલોમાં જિંદગી વીતે
કે કોઈ શેાર તો સંભળાવીએ જો ગીત નથી.

બીજી તરફ છે બધી વાતમાં હિસાબ હિસાબ,
અહીં અમારા જીવનમાં કશું ગણિત નથી.

એ મારા પ્રેમમાં જોતા રહ્યા સ્વાભાવિકતા,
કે મારો હાલ જુએ છે અને ચકિત નથી.

ભલે એ એક કે બે હા પછી ખતમ થઈ જાય,
મિલન સિવાય વિરહ તારો સંભવિત નથી.

જગતના દર્દ અને દુઃખને એ હસી કાઢે,
કરી દ્યો માફ હૃદય એટલું વ્યથિત નથી.

ફના થવાની ઘણી રીત છે જગતમાં ‘મરીઝ’,
તમે પસંદ કરી છે એ સારી રીત નથી.

~ મરીઝ ~


नहीं वो बात कि पहले जैसी प्रीत नहीं,
मिलूं मैं आपको इसमें आपका हित नहीं।

अब बताओ दास्ताँ-ए-ज़ीस्त कैसे लिखें?
यहाँ तो जो भी किस्से हैं संकलित नहीं।

हुआ न हार का अफ़सोस पर ग़म ये रहा,
कि मेरी ऐसी मात में तुम्हारी जीत नहीं।

मिले न लय तो धमाल में ज़िन्दगी बीते
कि कोई शोर तो सुनाएँ जो गीत नहीं।

उस तरफ हर बात पे हिसाब हिसाब,
यहाँ अपने जीवन में कुछ गणित नहीं।

वो मेरे प्यार में देखते रहे ज़ाहिरी
कि मेरा हाल देखते हैं और चकित नहीं।

चाहे वो एक या दो हाँ पर ख़त्म हो जाए,
मिलन बिना विरह तुम्हारा संभवित नहीं।

जग के दर्द और दुःख पर वो हंस दे,
कर दो माफ़ हृदय इतना व्यथित नहीं।

फ़ना होने के बहुत तरीके हैं जग में ‘मरीज़’,
आपने अपनाई है वो अच्छी रीत नहीं।

~ मरीज़ ~


मरीज़ – गुजरात के ग़ालिब

अनुवाद, मरीज़

गुजरात के कवियों और शायरों में मरीज़ एक बहुत बड़ा नाम है। इनका जन्म का नाम था – अब्बास वासी। कला-विश्व के सितारों के जीवन के बारे में जो अक्सर सुना जाता है, वैसी हज़ारों परेशानियों और ख़ामियों के मरीज़ ये भी थे, पर मेरे विचार में ये सब बातें गौण हैं। ग़ौर करने लायक तो बस उनकी शायरी है जिसको हिंदी/उर्दू में, देवनागरी लिपि में उपलब्ध कराने का एक प्रयास मैं इस ब्लॉग के माध्यम से कर रही हूँ ताकि ये खूबसूरत ख़याल सिर्फ़ गुजराती भाषा तक सीमित न रहें और इनका लुत्फ़ ज़्यादा से ज़्यादा लोग उठा सकें।

इस श्रेणी में अनुदित ग़ज़लें और नज़्में 1982 में लोकमिलाप ट्रस्ट द्वारा ‘काव्य-कोडियां’ श्रेणी के अंतर्गत प्रकाशित की गई थी। इसकी ख़ास बात यह है कि यह शायर का पूरा दीवान नहीं है, पर उनकी चुनिंदा रचनाएँ हैं जो गुजराती साहित्य के एक और जाने-माने व्यक्तित्त्व – राजेन्द्र शाह ने बड़ी मेहनत से चुनी हैं और इस संग्रह को शायर का सबसे उमदा काम कहा जा सकता है।

ફક્ત એ કારણે

ફક્ત એ કારણે દિલમાં વ્યથા આખી ઉમર લાગી,
કે મારી બદનસીબીથી મને આશા અમર લાગી.

ઘડીભરમાં તને પણ એની સંગતની અસર લાગી,
તને પણ પાછા ફરતા એક મુદત નામાબર લાગી

ન મેં પરવા કરી તેનીય એણે નોંધ ના લીધી,
મને તો આખી દુનિયા મારા જેવી બેકદર લાગી.

ઝરણ સુકાઈને આ રીતથી મૃગજળ બની જાએ?
મને લાગે છે એને કોઈ પ્યાસાની નઝર લાગી

હવે એવું કહીને મારું દુઃખ શાને વધારો છો,
કે આખી જીંદગી ફીકી મને તારા વગર લાગી.

હતો એ પ્રેમ કે વિશ્વાસ, પણ તારી ઉપર આવ્યો,
અને શંકા કદી લાગી તો એ તારી ઉપર લાગી

ઘણાં વરસો પછી આવ્યાં છો એનો એ પુરાવો છે,
જે મહેંદી હાથ અને પગ પર હતી તે કેશ પર લાગી.

બધા સુખદ અને દુખદ પ્રસંગોને પચાવ્યા છે,
પછી આ આખી દુનિયા મારું દિલ લાગી, જીગર લાગી

અચલ ઇનકાર છે એનો ‘મરીઝ’ એમાં નવું શું છે?
મને પણ માગણી મારી અડગ લાગી, અફર લાગી.

सिर्फ़ इस लिए

सिर्फ इस लिए दिल को ख़लिश सारी उमर लगी,
कि मेरी बद-नसीबी से मुझे आशा अमर लगी।

पल भर में तुमको भी उसकी असर लगी,
तुम्हें भी लौटते एक मुद्दत नामा-बर लगी।

न मैंने परवाह की उसकी भी न तवज्जो हुई,
सारी दुनिया मुझे अपने जैसी बेक़दर लगी।

झरना सूख कर इस तरह सराब बन जाए?
शायद उसे भी किसी प्यास की नज़र लगी।

अब यह कहकर मेरा दर्द क्यों बढ़ाते हो,
कि पूरी ज़िंदगी फीकी मुझे तेरे बग़ैर लगी।

था वो प्यार या ऐतबार पर तुम पर आया,
और शक की निगाह लगी तो तुम पर लगी।

सालों बाद आए हो इसका यह सुबूत है,
जो मेहंदी हाथ-पैर पर थी वो सर पर लगी।

सारे अच्छे और बुरे किस्सों को पचाया है,
फिर सारी दुनिया मुझे अपना दिल लगी, जिगर लगी।

अचल इनकार है उनका ‘मरीज़’ इसमें नया क्या है?
मुझे भी मांग अपनी अटल लगी, अमर लगी।

एक शाम की मुलाक़ात

अनुवाद, चन्द्रकान्त बक्षी

दिसम्बर के तीसरे हफ्ते में हमने घर बदल लिया और नये फ़्लैट में रहने आ गए। फ़्लैट सबसे नीचे के तल्ले पर था। उसमें तीन कमरे और रसोई-बाथरूम थे।

बाहर छोटा प्रांगण था और उसके आसपास लगभग दस फुट ऊंची ईंट की दीवार थी, जिस पर ताज़ी पुताई की हुई थी। दीवार के पीछे से बिखरे हुए पेड़, नाटे मकानों के काले पड़ चुके छप्पर और बदलता आसमान – यह सब दिखाई देता था। खिड़किओं से प्रांगण दिखता था और उसमें तरह तरह के फूल उगाए जाते थे।

हमारे ऊपर हमारा बंगाली मकान-मालिक अक्षय बाबू, उसकी पत्नी और तीन बच्चों के साथ रहता था। वह किसी गवर्न्मेंट ऑफ़िस में क्लर्क था। उसकी पत्नी – शोभा – काली थी और बहुत खुले दिल से हंसती थी, और रात के अंधेरे में प्रांगण के फूलों के आसपास घूमती थी। तीनों बच्चे बालीगंज की ओर किसी हाईस्कूल में पढ़ते थे।

जब मैं मकान की खोज में एक दलाल के साथ आया था तब मेरी पहली मुलाक़ात शोभा के साथे हुई थी। मकान पुराना था और हमारा फ़्लैट पुता हुआ था। दलाल ने मुझे बाहर खड़ा कर अंदर जाकर ख़ुद बात की और फिर मुझे बुलाया था। बाँस के बंधे हुए मकान पर बैठकर रंगकर्मी डिस्टेम्पर के कूंचे घुमा रहे थे। कमरा खाली होने की वजह से बड़ा लग रहा था और दीवारों में से गीले रंग, चूने और मिट्टी की मिश्रित बू आ रही थी।

‘आप यह मकान लेना चाहेंगे?’ नमस्कारों की लेन-देन होने के बाद उसने पूछा था।

‘हाँ।’

‘आप दो लोग हैं?’

‘हाँ।’ दलाल ने बीच में कहा, ‘मियाँ-बीवी दो ही लोग हैं। और कोई नहीं। आपको किसी भी बात की परेशानी नहीं होगी और बहुत अच्छे लोग हैं।’

मैं ख़ामोश रहा और बाहर के प्रांगण की ओर देखता रहा। शोभा मुझे बराबर से देख रही थी वह मैं समझ गया।

जगह हमें पसंद थी। शुरूआती विधियाँ निपटा कर हमने दो दिन बाद लॉरी से सामान पहुंचा दिया। हफ़्ते बाद अच्छा दिन देख कर हमने वहाँ रहना शुरू किया।

मैं रोज़ सुबह आठ बजे नहा कर, गरम नाश्ता करके जाता। दोपहर एक बजे आता और खाना खा कर एक घंटा आराम करके फिर चला जाता। रात को वापस लौटते लगभग साढ़े नौ हो जाते, फिर खा कर, मेरी बीवी सरला के साथ थोड़ा झगड़ कर मैं सो जाता!

मेरी और शोभा की मुलाक़ात बहुत काम होती, पर वह मेरे आने-जाने के वक़्त का बराबर ख़याल रखती। एक रविवार मैं सुबह बिस्तर पर लेटे हुए एक क़िताब पढ़ रहा था तब उसने खिड़की की जाली के पीछे आकर कहा, ‘मिस्टर मेहता, आपको फूलों का शौक़ है क्या?’

मैं हक्का बक्का रह गया। मैंने क़िताब बाजू पर रखी और एकदम से बैठ गया। रसोई में से स्टव पर पानी के उबलने की आवाज़ आ रही थी। सरला रसोई में थी। मैंने कहा, ‘कुछ ख़ास नहीं।’

वह हंस दी, ‘आपकी बीवी को बहुत शौक़ है। रोज़ शाम मेरे से दो-चार फूल लेकर जातीं हैं।’ मैं देखता रह गया।

इतने में रसोई से सरला की आवाज़ आई। शोभा खिड़की से दूर चली गई और मैं खड़ा हो गया। सब कुछ एक स्विच दबने जितनी तेज़ी से हो गया।

मेरी और शोभा की मुलाक़ात बहुत कम होती। मैं रविवार के अलावा पूरा दिन अपनी दूकान पर रहता। दोपहर के थोड़े आराम के अलावा मैं सुबह आठ से रात के साढ़े नौ तक घर से बाहर ही होता। सुबह शोभा नीचे आती और मेरे जाने के बाद सरला के साथ बातें करती। रात को सरला मुझे रोज़ की बातों की रिपॉर्ट देती और मैं बिना ध्यान दिये सुनता।

थोड़े दिन इस तरह बिताने के बाद मुझे लगा कि मुझमें शोभा के लिए थोड़ा कुछ आकर्षण जन्म ले रहा था। यह स्वाभाविक नहीं था।

पर इसका स्पष्ट रूप से स्वीकार करने के लिए मैं राज़ी नहीं था। शोभा काली थी, वयस्क थी, तीन बच्चों की माँ थी। मैं अनायास विचारों में चला जाता। पर उसमें सचमुच कुछ आकर्षण था। उसके बदन में तीन बच्चे होने के बाद भी सरला की अपेक्षा विशेष सुरेखता थी। वह हंस देती, मज़ाक करती, देखती – सब कुछ, जिससे घबराहट हो उतनी निर्दोषता से। उसकी ऊंची, भरी भरी छाती से मैं कोशिश करके तुरंत नज़र हटा लेता और मुझ पर किसी गुनाहगार सा असर होता।

कभी कभी मुझे यह ख़याल भी आता था कि किसी दिन सरला घर पर नहीं होगी और वह अचानक मेरे कमरे में आ जाएगी, और खिड़कियाँ बंद कर देगी, और शाम होगी, – और मैं बड़ी कोशिशों के बाद ख़यालों को रोक पाता। मैंने सरला को इस बारे में कभी कुछ कहा नहीं था और जब वह बातों ही बातों में शोभा के बारे में बात करती तब मैं लापरवाह अनुत्तेजना का ढोंग करके भी एकदम ध्यान से उसकी बात सुन लेता।

सरला और मैं हर शनिवार रात या रविवार दोपहर को फिल्म देखने के लिए जाते और प्रायः हमेशा ही हम बाहर जाने निकलते तब वह खिड़की में बैठी होती। सरला से वह मेरी तारीफ़ करती और सरला मुझे सब बताती। एक दिन हम फिल्म देखने जा रहे थे तब रास्ते में सरला ने कहा, ‘शोभा बड़ी हुशियार औरत है। वह ऊपर रहती है इसलिए मुझे इस जगह पर बिलकुल डर नहीं लगता।’

‘सही बात है; है तो शेरनी जैसी। वह है तो कोई परेशानी नहीं।’

‘कौन कितने बजे आया, कब गया – सबका ख़याल रखती है। तुम किस बस-रुट से जाते हो और पिछले रविवार तुमने क्या पहना था वह भी उसे पता है।’

‘अच्छा? तुमको बताती होगी।’

‘हाँ। मुझे कहती है कि, सरला, तुमने लड़का अच्छा चुना है।’

मैंने सरला की ओर देखा। मुझसे आँख मिलते ही वह हंस पड़ी।

‘उसकी बात सही है।’ मैंने कहा। ‘तुमने लड़का सचमुच अच्छा चुना है।’

‘चलो जाओ; शादी करने की जल्दी तो तुम्हे थी। मैंने तो पहले ही मना किया था … ‘

‘… फिर सोचा, अब ज़्यादा खींचेंगे तो हाथ से निकल जाएगा इसलिए हाँ कर दी!’ मैंने कहा।

सामने से आती हुई खाली टैक्सी को रोक कर हम दोनों बैठ गए।

दिन गुज़रते गए। कभी कभी मैं दुकान जाने के लिए बाहर निकलता और शोभा प्रांगण में खड़ी खड़ी मुझे देखती रहती। सरला की उपस्थिति में भी वह मेरे साथ हंसकर बात करती। तब हम बंगाली में बातें करते और सरला बंगाली समझ नहीं पाती। अक्षय बाबू के साथे मेरी कुछ ख़ास बात होती नहीं। वह आदमी ऑफिस के आलावा पूरा वक़्त घर पे ही बैठा रहता। कभी कभी ऊपर से रविन्द्र संगीत गाने की आवाज़ आती या सुबह बाज़ार से सब्ज़ियाँ लेने निकलता तब दिखाई देता।

सरला ने एक बार मुझे पूछा था, ‘इसका बाबू कुछ काम नहीं करता लगता। विधवा की तरह पूरा दिन घर पे बैठा रहता है।’

‘कहीं नौकरी करता है और हमारा किराया मिलता है – उसका काम चलता है। पर, आदमी बेचारा बहुत शांत है।’

‘पर इन दोनों की जोड़ी कैसे बन गई? शोभा का बाप तो पैसेवाला है। गहनों की दुकान है और वह बचपन में कॉन्वेंट में पढ़ी है।’

‘कॉन्वेंट से बेचारी ज़नानख़ाने में आ फंसी …’ मैंने कहा।

‘ज़नानख़ाने में कोई नहीं फंसी।’ सरला ने कहा, ‘अपने पति को फंसा दिया।’ और हम दोनों हंसे।

‘तुम्हे पता है? अपने फ्लैट का रंग- रिपेरिंग सब उसने खुद से करवाया है। पक्की बिज़नेसवुमन है! बंगालियों में ऐसी स्त्री तो कभी ही देखने मिलती है!’ सरला ने जवाब नहीं दिया। किसी ख़याल में हो ऐसा भी कुछ नहीं लगा।

दिन गुज़रते गए वैसे शोभा मेरे ख़यालों पर कड़ी पकड़ जमाने लगी। मुझे दिन-रात उसी के ख़याल आते। वह भी मेरे साथ बात करने के बहाने खोजती फिरती थी यह मैं समझ गया था, पर वह बेवकूफ़ी करनेवाली स्त्री नहीं थी। बागीचे से फूल लेने वह निचे आती और मैं छुट्टी के दिन बिस्तर पर पड़ा हूँ या शेविंग कर रहा हूँ तब उसकी आँखों में मैं मुझे मिलने आने की, एकांत की इच्छा देख पाता। सरला पूरा दिन घर ही रहती, शोभा को अपने बच्चों से फुर्सत न मिलती और मैं अधिकांश दुकान पर रहता। एक दिन सुबह उसने मुझे कहा, ‘आप बहुत मज़दूरी करते हैं, मिस्टर मेहता!’

‘क्या करें?’ मैंने कहा, ‘तक़दीर में जो लिखी है …’

‘आप जैसी तक़दीर तो …’ वह रहस्यमय हंसी। ‘बहुत कम लोगों की होती है।’ मैं भी हंसा।

‘मुझे एक बार आपकी दुकान पर आना है।’ उसने कहा।

मैं बहुत घबराया। दुकान की दुनिया में मैं शोभा को घुसने देना नहीं चाहता था। मैंने तुरंत कहा ‘आपको कुछ चाहिए तो मुझे बताइएगा, मैं ले आऊंगा। दिन में चार बार तो आता-जाता रहता हूँ। इतनी दूर आने की आप क्यों तकलीफ़ लेंगी? मैं शायद बाहर गया हूँ, मिलूँ या ना भी मिलूँ …’ शोभा मेरी ओर देखती ही रही।

सरला की उपस्थिति में मैंने शोभा के साथ बातें करना कम कर दिया था। वह भी समझ कर सरला की उपस्थिति में मुझसे बात न करती। सरला के साथ उसका अच्छा नाता था। मेरी अनुपस्थिति में दोनों बहु बातें करतीं। कभी मैं आ जाता तब वह हंसकर कहती, ‘चलो, मैं चलती हूँ; अब आप दोनों बातें कीजिए -‘ और तुरंत चली जाती।

बहुत दिन हो गए थे। शोभा एकदम नज़दीक थी और फिर भी कितनी दूर थी। मुझे उसके साथ दिल खोल कर बात करने का मौका नहीं मिलता था। वह हमेशा कोशिश में रहती – मेरे पास आने की पर, घर में एकांत न मिलता। सरला हमेशा घर पर ही रहती। ऐसा कभी ही होता कि सरला बाहर गई हो और मैं घर में अकेला हूँ।

मैं सिर्फ उस दिन की कल्पना करके ही बेचैन हो जाता। शोभा के ख़याल से ही मैं एकदम गर्म हो जाता और अंत में निराश होकर सोचता कि शायद ऐसा प्रसंग कभी नहीं आएगा जब फ़्लैट के एकांत में मिल पाएंगे। और जैसे जैसे निराशा निराशा होती जाती वैसे वैसे मेरी इच्छा और भी सतेज बनती। शोभा गर्म औरत थी, उसकी आँखों में जवानी का तूफ़ान बिलकुल कम नहीं हुआ था और वज़नदार शरीर में अभी भी ज्वार था। मैं उसके लिए मानो छटपटा रहा था।

मुझे टेढ़े-मेढ़े बहुत ख़याल आते। रोज़ शाम ढलती और रास्तों पर हलकी गैसलाइटें जल उठतीं तब मैं उदास हो जाता और मेरा आधा सर दर्द करने लगता। कभी कभी मुझे घर चले आने का मन करता और मैं दुकान से बाहर निकलकर किसी एर-कंडिशंड होटल में जाकर बैठ जाता और कॉफ़ी पीता। एक दिन मुझे बेचैनी लगने लगी और शाम को ही मैं घर आ गया। सरला सब्ज़ी लेने गई थी। मैं दरवाज़ा बंद कर, कपड़े बदल कर बिस्तर पर जा गिरा और बाहर डोरबेल बजा – सरला आ गई थी।

मैंने उठ कर दरवाज़ा खोला – सामने शोभा खड़ी थी!

‘आप आज बड़ी जल्दी आ गए?’ उसने पूछा।

‘हाँ, ज़रा तबियत ठीक नहीं लग रही थी।’ मैंने कहा और मेरी तबियत को मैं एकदम भूल रहा था!

‘सरला हाल ही सब्ज़ी लेने गई है। उसे आने में अभी आधा घंटा लगेगा। आपको मैंने आते देखा इसलिए सोचा कि मिल लूँ … मुझे भी लगा की तबियत ठीक नहीं होगी!’

‘अंदर आइए।’ मैंने कहा। मेरे कान गर्म हो गए। वह अंदर आई और दरवाज़ा बंद किया। हम दोनों एकदूजे को समझ गए थे। जाने मुझे यह मौका अनायास ही हाथ लग गया था।

हम दोनों बीच के बड़े कमरे में आए। मेरा दिल धड़कने लगा। शोभा सामने थी और सरला को आने में अभी आधे घंटे की देर थी, और –

‘मुझे आपसे एक प्राइवेट बात करनी है।’ उसने कहा, ‘अंदर चलिए।’ मैं बोल पाया। हम दोनों कोनेवाले कमरे में आ गए। शाम थी। अंधेरा था। मैंने बत्ती नहीं जलाई।

‘यहाँ कोई नहीं?’ उसने दबी सी आवाज़ में पूछा।

‘नहीं। फ़्लैट में हम दोनों ही हैं।’

उसने ज़रा खिसक कर बीच का दरवाज़ा बंद करते हुए कहा, ‘सामने के मकानवाले हमें देखें यह मुझे पसंद नहीं।’

पूरे कमरे में शून्यता छा गई।

उसने मुझे अपने पास आने का इशारा किया। मैं खिंचा चला गया। मुझे लगा मैं कांप उठूंगा।

मेरी आँखों में आँखें डालकर वह कहने लगी, ‘मैं आई हूँ कुछ कहने … सुनिए, लगभग रोज़ शाम छः बजे एक आदमी आपकी बीवी को मिलने आता है! आपको पता है?’

मैं कांप उठा।