मरीज़ – गुजरात के ग़ालिब

अनुवाद, मरीज़

गुजरात के कवियों और शायरों में मरीज़ एक बहुत बड़ा नाम है। इनका जन्म का नाम था – अब्बास वासी। कला-विश्व के सितारों के जीवन के बारे में जो अक्सर सुना जाता है, वैसी हज़ारों परेशानियों और ख़ामियों के मरीज़ ये भी थे, पर मेरे विचार में ये सब बातें गौण हैं। ग़ौर करने लायक तो बस उनकी शायरी है जिसको हिंदी/उर्दू में, देवनागरी लिपि में उपलब्ध कराने का एक प्रयास मैं इस ब्लॉग के माध्यम से कर रही हूँ ताकि ये खूबसूरत ख़याल सिर्फ़ गुजराती भाषा तक सीमित न रहें और इनका लुत्फ़ ज़्यादा से ज़्यादा लोग उठा सकें।

इस श्रेणी में अनुदित ग़ज़लें और नज़्में 1982 में लोकमिलाप ट्रस्ट द्वारा ‘काव्य-कोडियां’ श्रेणी के अंतर्गत प्रकाशित की गई थी। इसकी ख़ास बात यह है कि यह शायर का पूरा दीवान नहीं है, पर उनकी चुनिंदा रचनाएँ हैं जो गुजराती साहित्य के एक और जाने-माने व्यक्तित्त्व – राजेन्द्र शाह ने बड़ी मेहनत से चुनी हैं और इस संग्रह को शायर का सबसे उमदा काम कहा जा सकता है।

ફક્ત એ કારણે

ફક્ત એ કારણે દિલમાં વ્યથા આખી ઉમર લાગી,
કે મારી બદનસીબીથી મને આશા અમર લાગી.

ઘડીભરમાં તને પણ એની સંગતની અસર લાગી,
તને પણ પાછા ફરતા એક મુદત નામાબર લાગી

ન મેં પરવા કરી તેનીય એણે નોંધ ના લીધી,
મને તો આખી દુનિયા મારા જેવી બેકદર લાગી.

ઝરણ સુકાઈને આ રીતથી મૃગજળ બની જાએ?
મને લાગે છે એને કોઈ પ્યાસાની નઝર લાગી

હવે એવું કહીને મારું દુઃખ શાને વધારો છો,
કે આખી જીંદગી ફીકી મને તારા વગર લાગી.

હતો એ પ્રેમ કે વિશ્વાસ, પણ તારી ઉપર આવ્યો,
અને શંકા કદી લાગી તો એ તારી ઉપર લાગી

ઘણાં વરસો પછી આવ્યાં છો એનો એ પુરાવો છે,
જે મહેંદી હાથ અને પગ પર હતી તે કેશ પર લાગી.

બધા સુખદ અને દુખદ પ્રસંગોને પચાવ્યા છે,
પછી આ આખી દુનિયા મારું દિલ લાગી, જીગર લાગી

અચલ ઇનકાર છે એનો ‘મરીઝ’ એમાં નવું શું છે?
મને પણ માગણી મારી અડગ લાગી, અફર લાગી.

सिर्फ़ इस लिए

सिर्फ इस लिए दिल को ख़लिश सारी उमर लगी,
कि मेरी बद-नसीबी से मुझे आशा अमर लगी।

पल भर में तुमको भी उसकी असर लगी,
तुम्हें भी लौटते एक मुद्दत नामा-बर लगी।

न मैंने परवाह की उसकी भी न तवज्जो हुई,
सारी दुनिया मुझे अपने जैसी बेक़दर लगी।

झरना सूख कर इस तरह सराब बन जाए?
शायद उसे भी किसी प्यास की नज़र लगी।

अब यह कहकर मेरा दर्द क्यों बढ़ाते हो,
कि पूरी ज़िंदगी फीकी मुझे तेरे बग़ैर लगी।

था वो प्यार या ऐतबार पर तुम पर आया,
और शक की निगाह लगी तो तुम पर लगी।

सालों बाद आए हो इसका यह सुबूत है,
जो मेहंदी हाथ-पैर पर थी वो सर पर लगी।

सारे अच्छे और बुरे किस्सों को पचाया है,
फिर सारी दुनिया मुझे अपना दिल लगी, जिगर लगी।

अचल इनकार है उनका ‘मरीज़’ इसमें नया क्या है?
मुझे भी मांग अपनी अटल लगी, अमर लगी।