चक्षु:श्रवा (भाग – २)

चन्द्रकान्त बक्षी

महल में जाने के मार्ग के दोनों तरफ साल के वृक्ष कतार-दर कतार थे और मार्ग पर वृक्षों की परछाइयों की डिज़ाइन दूर तक दिखती थी । पुराने वृद्ध वृक्षों पर अब फल-फूल भी बहुत छोटे आते थे । और एक-दो वृक्ष अत्यंत वृद्ध हो जाने की वजह से फल आने बंद हो गए थे । देहली के पास उगे हुए घुमावदार वृक्ष की वजह से, उसके मूल की वजह से, देहली के पत्थर में एक उतरती हुई दरार पड़ गई थी, जो गिरती हुई बिजली की तरह टूटती खिंच गई थी । पुरानी खिड़कियाँ, जिसमें कहीं कहीं लकड़ी की सिक्या नदारद थी और देहली अटकती थी वहाँ चौड़ी डोरिक कॉलमें फ़ैल जाती थी ।

बीच में एक चौगान था और चारों ओर पिंजरों में रंगीन पंछियों का कलरव था । बूढ़े काकातुआओं के पैर पित्तल की चैनों से बांधकर उन्हें लोहे के स्टैण्ड पर बिठाया था और उनके गले के रुएं झड़ चुके थे और उनकी चोंच पर से चमक उड़ गई थी । कहीं से एक मैना का स्वर, दूर एक सफ़ेद मोर के फैलाव सिकुड़ते होती हवा चीरती फफडाहट । हरे मख़मल का वज़नदार पर्दा खिसा । पर्दे हिलते नहीं थे । उनमें हवा रुकी हुई थी और समय बन्द पड़ा था और मखमली सिलवटों में धूल की पर्तें चिपक जाने से रंग निस्तेज हो गए थे । दीवारें थीं , लकड़ी के पॉलिश किये हुए दरवाज़े,टेबल पर चमकता कांसे का चिरागदान था, जिसके बाहर पाँखोंवाले नग्न कामदेव की सौम्य मूर्ति थी, चालू पॉलिश लगाने से कामदेव के गालों का कांसा कपाल, आँख और सिर के कांसे से विशेष चमकता था ।

एक दुनिया थी – साठ, सत्तर, पचहत्तर साल पहले शुरू हुई थी, पच्चीस-तीस साल तक चली थी। रंगदर्शी लरज की दुनिया, पोर्सेलिन के विराट वाज़, ऊपर पिरोजा रंग के चितरे ड्रेगन, जिनके खर्राटों से फूँकता केसरी धुआँ । शीशे का एक मोटा गोला था, अंदर झिलमिलाता पानी और उस पानी की टूटती तहें । अंदर चकराती काली सुनहरी गोल्डफिश और उनका गोल गोल तैरना । सीलिंग की कुतरी हुई लकड़ी के रंग और झुर्रियों वाला प्लास्टर, छिले प्लास्टर पर संभलकर सरकती छिपकली, दीवारें शौर्य की तवारीख़ के गवाह की तरह शांत खड़ी थीं, ढाल के नीचे झूलती गनमेटल की चैन और शस्त्र म्यान के ब्रोकेड पर मक्खियाँ बैठने से चिपकी हुई दाग़दार गंदकी, कटग्लास के कांपते झुम्मरों की नग्नता । पुरानी कालीन, सोफे के पैर के पास से रंगों के उखड़े हुए धब्बों के रुझे ज़ख्म वाली, जिसकी रुआंदार कढ़ाई पर ढली हुई शराबों की सिंचाई हुई थी । और कईं वर्ष, जवानी में सराबोर धुआँ-धुआँ । गौरसंजीदा साल और लोबान की तरह जल चुके उन हमदर्दों के वर्षों की महक । जीवन की उपज की रौंदती ज़हरीली महक, पर बहलाती महक ।

– सफ़ेद किनखाब पर उभरे काले फूल और सोने के तारों से गूँथी हुई टहनियाँ, हाथीदाँत की प्यालियाँ, चांदी के पानदान, बाल्कनी में से आती केवड़े की महक, गनमेटल में खुदा हुआ मांसल अपोलो, धुम्मसी स्त्रियों की स्वप्नशील आभासी तसवीरें, शिकार के चित्र, चेस्टनट रंग के पानीदार घोड़े और बदामी धब्बोंवाले सफ़ेद जानदार कुत्ते और विलायती आकाश और चेक फ्लेनेल की काउन्टी टोपियाँ । सुगन्धि बंद करने के लिए इस्तेमाल किये जाते हों वैसे नक्शी किये हुए बक्से, गुलाबजल की सुराहियां, केसर के आला शराब, जेड के हाथवाले कटार । गोमेदक मढ़ा हुआ पत्थर का क्रॉस, पन्नों में से तारी हुई गणेश की मूर्ति, छलकती श्री ।

और इति के बाद शुरू होता आरंभ । यॉर्कशायर पुडिंग ? … सोहो की याद दे रहा है … घोड़ा पिछले हफ्ते ही आया है, प्योर आइरिश थोराब्रेड … शनेल नंबर फाइव ? ओह ! ख़्वाबों में दुनिया में उसकी खुशबू छूटती नहीं … सेविल रो में सूट बनवाया था, दुनिया में ऐसे दो ही सूट हैं, अन्नदाता … अच्छा, इन्स ऑफ कोर्ट … जिमखाना … प्लांटर्स क्लब में सैटरडे नाइट है … कुनर आएगी । लेंकेशायर की है, दो साल बर्लिन में थी … ब्रिज एन्ड डेनिश बियर … ओह नो! मॉल पर थोड़ा घूमेंगे … ऑक्सफर्ड में थे ? कल सुबह गोल्ड लिक्स पर, केडीज़ को बोला है ? … मार्टिनी, ड्राय मार्टिनी … नो, आयम एन इंग्लिशमेन … डॉग शो है ? लंचन मीटिंग … मॉनसून रेसिस की सेकण्ड मीटिंग है । आरिएल पंटर … कड़क कॉलर, फीकी टाई, कॉकटेल के लिए आए चेकोस्लोवाक काँच के गिलास … टर्फ पर मिलेंगे … ‘न्यू स्टेट्समेन’ नया आया है ? येस … मिसिस रोबिनसन, हमारे सारे लोग स्टेबल बॉय, बूढ़े वेइटर, नेपाली ड्राइवर, बारमेन, खानसामा, साईस, बिलियर्ड मार्कर सबकी आँखों में आंसू आ गए, हमने कलकत्ता छोड़ा तब ‘फॉर ही इज़ आ जॉली गुड फेलो !’ … ‘गॉड सेव द किंग …’

-दादा  केसरीसिंघ ने मुँह फेर लिया, बेत किनारे पर टिका दी । वापस बिस्तर के पास आए । बिस्तर न बहुत नीचे था, न बहुत ऊपर था और दादा बिना आयास बैठ सके ऐसा था। कोशा को भी दादा का बिस्तर ज़्यादा पसंद था क्योंकि उसमे बिना प्रयत्न घुस सकते थे । दादा केसरीसिंघ के मन में आंधी के जोश से स्मृतियाँ टकरा रही थीं । ज़मीनदार थे, राजा-नवाब थे, गोरे हाकेमों की एक अलग रसम थी । दादा केसरीसिंघ ने अलग अलग दुनिया में से रास के घूँट पी लिए थे । अब सिर्फ ‘बीटिंग द स्ट्रीट’ बाकी रहा था । जीवन की मार्च पूरी होने को आई थी । झंडा झुका लेना था, सामने समंदर की ब्ल्यू अनपेक्षा लहराती थी और प्रकाश के थिरककर-झपककर बह जाती बूँदों की ओर आँखें झपकाकर अंतिम ‘स्लो-मार्च’ कर लेनी थी ।

दादा केसरीसिंघ अपने बिस्तर पर लुढ़क गए । आवाज़ों की दुनिया कई वर्षों से शांत हो गई थी । भूतकाल न होता तो जीया भी न जाता । नई दुनिया रास नहीं आती और दुनिया प्रत्येक क्षण नई होती जाती है । कुदरती खेल है । दादा केसरीसिंघ ने सोचा, इन्सान पुराना होता जाता है, दुनिया नई होती जाती है और हारती बाज़ी पर बैठा इंसान चिल्लाता रहता है – मैं सही हूँ, दुनिया ग़लत है । क्या होगा इस दुनिया का ? क्या होना है दुनिया का ? दादा केसरीसिंघ ने सोचा, सौ साल पहले वी.टी. के स्टेशन पर गाड़ी आई थी, आज जम्बो जेट आए हैं, सौ साल बाद कुछ नया आएगा ।

दादा केसरीसिंघ ने आँखें बंद की, थकान और साँस चढ़ गई थी । अचानक सब सुनाई देने लगा, बंद आँखें होने के बावजूद, दुनिया की आवाज़ें, जीवन की आवाज़ें – और मृत्यु का स्वर , हलका, थपथपाकर उठाता हो वैसा, दादा कोशा जितने थे तब उनकी माँ जगाने आती थी तब … तब वही आवाज़ सुनी थी, नींद में या शायद तन्द्रा में ।

**

दोपहर को कोशा को स्कूल से घर ले आए तब कोशा को समझ नहीं आया कि, पिनाक, राजु और नियति को नहीं पर उसे ही क्यों जल्दी छुट्टी मिल गई ? वह दौड़ती दौड़ती दादा केसरीसिंघ के बिस्तर के पास गई, किसीने उसे रोका नहीं, कहा भी नहीं वह दादा की प्रिय बेटी थी। दादा की आँखें बंद थी ।

“दादा, उठो, – आज मेरी छुट्टी हो गई ।” और दादा हिले नहीं । “आँखें  खोलो। आपने आँखें बंद की हैं इसलिए ही सुन नहीं रहे ।” और कोशा को अचानक घबराहट हो गई, और बड़े लोगों को होती है वैसी घबराहट, वह हट गई और फिर मुँह घुमाकर बड़ों की शकलें देखती रही। …

– चन्द्रकान्त बक्षी (1932 – 2006)

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