कर्णलोक [3]

कर्णलोक, ध्रुव भट्ट

मामा के घर को त्याग करने के मेरे निर्णय को मैंने भाग जाने के निर्णय के तौर पर कभी नहीं स्वीकार किया। बारह-तेरह साल की उम्र में भी मैंने समझा था कि इसे तो मेरा महाभिनिष्क्रमण कहा जा सकता है।

घर छोड़ते समय मैं जो अनुभूति कर रहा था उसमें हीनता की भावना कहीं भी नहीं थी। ऐसा न होता तो दोपहर को ट्रेन पर चढ़ जाने के अलावा मैंने कुछ किया न होता, पर स्टेशन में दाख़िल होने से पहले मैंने टिकट खरीदी थी मुंबई की। मुंबई जाना नहीं था। कहाँ जाऊँगा वह पता नहीं था। मामा स्टेशन पर जांच करें तो मैं मुंबई गया हूँ यह मान लें इतना काफी था।

रास्ते में जहाँ चाहूँ वहीं उतर जाना था। कहाँ यह तय नहीं किया था। शाम को बारिश शुरू हुई। बीच के किसी स्टेशन से दो आदमी, एक औरत और एक लड़की गाड़ी में चढ़े थे।

औरत पतली, थोड़ी श्याम, सुन्दर और सौम्य पर दृढ़ मुखवाली और एक पुरुष मज़बूत शरीरवाला, जिसके विद्वान होने का आभास होता था, खादी के कुर्ते-पाजामे में। दूसरा ज़रा वृद्धत्त्व की ओर ढलता, धोती और ऊपर सिर्फ बंडी पहना हुआ।

साथ में एक किशोरी थी जिसे पलभर देखते रहने का मन करे वैसी। उसने आते ही मानो पूरा डिब्बा रोक लिया हो वैसे बेंच पर थैलियाँ रखनी शुरू कर दी। सब सामने की सीट पर बैठने लगे। थोड़ा सामान सीट के टेल रखकर लड़की फिर से ऊपर के छज्जे पर जा बैठी। एक थैला सर पर रखकर वहाँ लेटकर कोई पत्रिका पढ़ने में व्यस्त हुई। गाड़ी चली, न चली और फिर से वह नीचे उतारकर दूर जाते स्टेशन को आवाज़ें देती रही।

उन लोगों के साथ जो स्त्री थी वह अपनी बेंच से उठकर मेरे पास आकर बैठी। पूछा ‘तुम्हारा नाम क्या है बेटे? अकेले ही हो?’

जवाब में क्या कहना था यह जल्दी सोचा न गया। पल भर सुना अनसुना कर कुछ बोले बग़ैर खिड़की से बाहर देखता रहा। उस धोती-बंडी वाले ने भी मुझे ध्यान से देखा।

मुझे ज़्यादा सताये बिना वह स्त्री उस बंडी वाले की ओर देखकर बोली ‘नंदू, खाने का डिब्बा निकाल ले भाई।’

डिब्बा खुलते ही थेपले और अचार की खुश्बू फैल गई। खिड़की पर आकर बैठी। बैठी हुई लड़की ने तुरंत खड़े होकर छज्जे पर से एक थैली में से थोड़े अख़बार बाहर निकालकर नीचे देते हुए कहा ‘लीजिये निम-बहन।’

निमु बहन ने अखबार के टुकड़े कर हर एक में थेपला और अचार रखे। एक भाग ऊपर देते हुये कहा ‘दुर्गा, ले। और तुम्हारी थैली में भाईजी का नाश्ता होगा, वह दे।’

दुर्गा अपनी थैली में ढूंढने लगी। उसमें से भाखरी और मेथी की सब्ज़ी निकाली और नीचे आकर उस खादीधारी को देते हुए कहा ‘लीजिए भाईजी, आपका फीका।’ फिर कोई फल दिखाते हुए बोली ‘चाहिए?’

दुर्गा के चेहरे का घाट, उजला चेहरा, बड़ी आँखें सभी कुछ उसे उसके साथिओं से अलग करते थे। उसके लक्षण भी उसके धीर-गंभीर दिखते साथिओं में किसी से मिलते नहीं थे। शायद उन लोगों के किसी मित्र की या कुटुम्बीजन की लड़की होगी ऐसा मैंने अनुमान लगाया।

ये लोग शान्ति से खा सकें इस लिए मैं दूसरी तरफ जाने के लिए उठा तो निमु बहन ने स्नेहपूर्वक रोकते हुए कहा ‘बैठो न बेटे। चलो हमारे साथ थोड़ा खा लो।’ फिर नाश्ता हाथ में देते हुए कहा ‘ले भाई। ये लो तुम्हारा भाग। और चाहिए तो डिब्बे से ले लेना।’

थोड़ा खंचित हो कर मैंने थेपले लिए और खाने लगा।

सामने बैठी दुर्गा मुझे देखती रही। फिर बोली ‘अचार पसंद है?’ जवाब की राह देखे बिना उसने परोस भी दिया।

मैंने सोचा कि वह थोड़ी देर और बोलती रही होती तो अच्छा होता। पर वह तो खिड़की से बाहर अंधेरे में दूर के गाँवों में जलते दीये देखते देखते खा रही थी। मैं उसकी ओर देखता रहा। अचानक मैं उसे देख रहा हूँ यह अंदाज़ा दुर्गा को लग गया। थोड़ा भी संकोच किये बिना उसने जो सोचा वह ही कहा ‘खाने पर ध्यान दो।’ फिर स्वाभाविक तरीके से फिर से बाहर देखती रही।

पेट में ठंडक हुई इसलिए बैठे ही बैठे कब नींद आ गई पता न चला। आधी रात में एक बड़े स्टेशन पर नंदू ने जगाया। ‘उतरना है?’

निमु बहन और भाईजी कहीं दिखे नहीं। ये लोग कौन हैं यह भी मुझे पता नहीं था। थोड़ी मुश्किल सी हो गई। नंदू को ना कहूँ तो शायद मुझे आगे कहाँ जाना है वह बताना पड़े उससे अच्छा उसके साथ उतारकर फिर किसी बहाने चले जाना सहल लगा।

गाड़ी से उतरते उतर तो गया; पर फिर तुरंत याद आया कि दरवाज़े पर टिकट मांगेंगे। मेरी टिकट मुंबई की थी इसलिए शायद कोई पूछताछ होगी।

थोड़ी घबराहट में जेब में हाथ डाला तो टिकट ग़ुम। जिस जेब में देख रहा था उसी में टिकट रखी थी इतना मुझे विश्वास था, फिर भी दूसरी जेब की भी जांच की। टिकट वहाँ भी नहीं थी। 

थैली में तो मैंने रखी ही नहीं थी फिर भी थैली में देखने के लिए मैं नीचे बैठा और दुर्गा बोली ‘सामने देखो तो सही, दरवाज़े पर कोई नहीं।’

ऊपर देखा तो लोग दरवाज़े से बेरोकटोक आ-जा रहे थे। मैं इतनी उलझन में था कि टिकट ढूंढ रहा था इसकी खबर दुर्गा को कैसे लगी यह ख़याल मुझे नहीं आया था। बाहर निकलते मुझे आभास हुआ कि दुर्गा किसी रहस्यमय तरीके से हंस रही थी।

बाहर हलकी हलकी बारिश हो रही थी। थोड़ा पानी भी भर आया था। नंदू ने दुर्गा से कहा ‘तुझे नेहा बहन के वहाँ छोड़ आता हूँ। बारिश हो रही है और साइकल पर तीन लोग बैठ नहीं पाएंगे।’

‘ठीक है पर सुबह स्कूल का क्या?’ दुर्गा बोली।

भागने का मौका देखकर मैंने कहा ‘तो आप लोग चले जाइए। मैं अपना देख लूंगा।’

‘नहीं नहीं, तुम साइकल से चलो आराम से। दुर्गाई को मैं सवेरे सवेरे ले जाऊँगा।’ नंदू ने कहा। उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल था। उन लोगों के साथ चलने के अलावा मैं कुछ कर न सका।

थोड़ा आगे जाकर एक मकान के पास हम रुके। घंटी बजाकर घर के मालिक को जगाया। एक प्रभावशाली युवती ने दरवाज़ा खोला और बोली ‘आईए। निमु बहन और भाईजी नहीं आए?’

वे लोग आगे आश्रम के रास्ते पर उतर गए। रात स्टेशन पर बिताकर सुबह की बस से आश्रम तक पहुँच जाएंगे।’ नंदू ने कहा और अंदर आते बोला ‘इस दुर्गा को रात यहीं छोड़कर जा रहा हूँ। सवेरे जल्दी आते-जाते किसी के साथ भेज दीजिएगा। वरना लेने आ जाता हूँ।’

‘ठीक है, मैं ही छोड़ दूँगी। और क्यों न आप सब भी रुक जाइए। सुबह चले जाना।’ उस युवती ने कहा। उसने मेरी पहचान न पूछी इसलिए मेरी एक मुश्किल तो काम हुई।

‘नहीं नेहा बहन, एक बार वहाँ पहुँच जाने के बाद ही थोड़ा आराम मिलेगा।’ नंदू ने कहा और मेरी ओर देखकर बोला ‘चलो।’

बारह-तरह वर्ष की उम्र में गृहत्याग करके निकले किशोर की होती है वैसी मूढ़ स्थिति मेरी भी थी। पकड़ा गया तो वापिस जाना असह्य हो जाएगा। किसी अनजान टोली में फंसने का भय सताता था। पिछली रात निमु बहन, दुर्गा, नंदू और अब नेहा बहन के बर्ताव से एकाधी रात नंदू के वहाँ बिताने में मुझे कुछ भय जैसा तो नहीं लगा था। उलटी थोड़ी आत्मीयता और राहत ही महसूस हुई थी।

मैंने कहा ‘हाँ। चलो।’

उस रात नंदू मुझे अपनी साइकल पर बिठाकर शहर से दूर ले गया। खेतों के बीच अंधेरे रास्ते पर आधा-एक घंटा चलने के बाद उसने साइकल एक बड़े दरवाज़े में मोड़ ली और दीवार के पास बंधी तीन खोलियों में से आखिरी खोली के पास मुझे उतारकर ताला खोलने लगा।

घर में प्रवेश कर मुझे एक कोरी धोती हाथ में थमाकर अपना शरीर गमछे से पोछते नंदू ने मुझे कहा था ‘घर से भागे हुए लड़के को तो पुलिस बुलाकर वापिस घर भेजना चाहिए। मुझे भी वैसे ही करना चाहिए था। पर तेरी शकल देखकर लगता है कि तुझे भागना पड़ा न होता तो तू भागा न होता। ज़रूर कोई वजह होनी चाहिए वर्ण कोई घर क्यों छोड़ता है भला? यह तेरा चेहरा ही कहता है कि तू वैसा नहीं है।’

यह सुनते ही मैं हक्काबक्का रह गया। मैं घर से निकल आया हूँ यह बात इस आदमी ने कैसे जानी यह मुझे समझ में नहीं आया। मैं ज़रा रुका और बोल दिया ‘मैं घर से भागा नहीं। मेरा घर ही नहीं।’

‘भागा नहीं? वाह! भागे बिना रेलवे के डिब्बे में बेंच पर बैठने पहुँच गए!’ कोने से अंगीठी खींचता नंदू मुझे देखकर हंसा, ‘तुम्हे और भी बहुत कुछ कहना होगा, पर अभी यह नंदू कुछ सुननेवाला नहीं। रहते रहते सब पता चल ही जाएगा। अभी तो मेरे मन में सुबह के काम की पीड़ा है। थोड़ी बहुत रात रह गई है उसमें नींद करनी है। ‘ कहकर उसने पानी पिया और मुझे पानी थमाते हुए बोला ‘तुम्हे भूख लगी हो तो डिब्बे में बिस्कुट पड़े होंगे।’

‘गाडी में निम बहन और आप लोगों ने मुझे खाना दिया था।’ मैंने कहा। 

‘देंगे ही तो। निम बहन तो बिलकुल देंगीं। वह नहीं भी होतीं तो भी तुझे कोई भी देता। तेरा ऐसा रंग और शक्ल देखकर तुझे दिए बिना और भी कोई रह पाएगा ?’ नंदू जल्दी में बोला। 

मैं उसका कमरा देखता रहा। इतनी देर में नंदू ने घर के पिछवाड़े में हाथ धोये और पोछते पोछते फिर कहने लगा ‘तेरी यह राजकुमार जैसी शक्ल-सूरत देखकर ही निमु बहन ने मुझे कहा था कि, तुम्हें – नए नए भगौड़े को इधर ले आऊं। मुझे भी समझ में आ गया था कि तुझे यहीं लाना पड़ेगा। वरना कौन जाने किस के हाथ लग गए होते।  सब आरासुरवाली माता का ही किया होना चाहिए। मान लो कि तुम कवच-कुंडल लेकर जन्मे होंगे। वरना तू बैठा हो उसी डिब्बे पर निमु बहन चढ़ेंगी ही क्यों!’

नंदू थोड़ा आवेश में था। खटिया लगाते वह फिर बड़बड़ाने लगा ‘अब अंगीठी जला, बारिश में भीगे हैं तो खोली गरम रखनी पड़ेगी। बीमार पड़ेंगे तो मुश्किल हो जाएगी। फिर परसो तो इन्स्पेक्शन आनेवाला है। कई इंतज़ाम करने पड़ेंगे। दुर्गा को चुप रहने के लिए समझाना पड़ेगा या फिर कहीं बाहर भेजना पड़ेगा। वह कोई मेरे-तुम्हारे जैसी इंसान थोड़ी है। वह जगज्जननी तो अपनी इच्छा से आई है इस पीले मकान में। उसे किस बात का डर!’

बात करते करते अचानक रुककर नंदू ने फिर कहा ‘अंगीठी लगा ले और तू अपना बिस्तर बना ले। मुझे अभी ध्यान-पूजा भी करने भी बाकी हैं। सोने से पहले कर लूँगा तो शांति मिलेगी। 

मैं देखता रहा। पनियार, डिब्बे-डिब्बियाँ – पुरुष के हाथों बसाया हुआ घर। इस खोली में कोई स्त्री शायद कभी नहीं रही होगी। दुर्गा नंदू के साथ तो नहीं रहती होगी? कुछ समझ नहीं आ रहा था। 

नंदू की पूजा हो गई। हम दोनों एक भी शब्द बोले बिना सो गए। मेरी चटाई ज़मीन पर और नंदू खटिया पर सोया। 

इन्स्पेक्शन है। दुर्गा को समझाना पड़ेगा। यह कुछ मुझे स्पष्ट समझ नहीं आ रहा था। नंदू ने तो ‘तेरी बात नहीं सुननी’ ऐसा कह ही दिया था। फिर ऐसी सब यहाँ की बातों में पड़ने का ख़याल तब नहीं आया था। कहाँ आ फँसा हूँ यह जानने जितना होश भी मुझे नहीं था। नंदू की बातें मुझे अधेड़ उम्र पार करने के छोर पर खड़े अकेले आदमी की बड़बड़ाहट से विशेष और कुछ नहीं लगती थी। एक लड़की को जगजननी कह दे यह क्या बात हुई!

हमारी आँख लगी न लगी कि दरवाज़े पर कोई आया और भारी आवाज़ में बोला ‘नंदू महाराज, आ गए क्या? बहन ने पुछवाया है क्या आपने दुर्गा के साथ बात कर ली?’

‘नहीं की। कल कर लूंगा।’ नंदू ने सोते सोते ही जवाब दिया।  

फिर बड़बड़ाते बोला ‘मुझे जो कहते हो वह बात खुद क्यों नहीं कर लेते? कोई गलती-गुनाह जताना हो तब तो सब खुद ही उसे कहने लगते हो। अब उसकी ज़रूरर आन पड़ी तब नंदू हाथ याद आता है?

यह सब सुनकर मेरी मुश्किल बढ़ी। यहाँ किस बात का इन्स्पेक्शन हो रहा होगा? शायद पुलिस आनेवाली होगी उस ख़याल से डर लगा। इस सुनसान एकांत माहौल में मन ही मन रोना आ रहा था। ट्रेन और स्टेशन का भरा-पूरा कोलाहलमय संसार छोड़कर नंदू के साथ आने को तैयार हो गया उसका पछतावा भी शायद हुआ होगा। याद नहीं। जाने किसी रहस्यमय जगह में कैद हो गया हूँ ऐसा महसूस हो रहा था। 

नींद से भी चौंककर जग जाता था। इसलिए सुबह उठने में देर हुई। पूजा के झरोखे में पड़े ताज़े फूल देखकर समझ गया कि नंदू नहाकर और पूजा करके बाहर निकल गया है। 

रात वह दुर्गा जल्दी आ जायेगी यह बात की थी, वह आ गई हो ऐसे कोई निशान नहीं थे। शायद नंदू उसे लेने गया हो। घर खाली था। 

मैंने कमरे का दरवाज़ा खोला और बाहर आया। चारों ओर से कम्पाउंड वॉल से घिरी जगह के बीच सुन्दर पुराने सरकारी मकान जैसा पीला मकान। अस्पतालों या स्कूलों में होता है वैसे ही आगे के भाग में दो कमरों के बीच से पीछे के आँगन में जा सकें वैसी रचना थी। आँगन में जाने का रास्ता जाली-बंद था। आँगन में कुछ बच्चे और एक स्त्री किसी काम में लगे हों ऐसा आभास होता था। उस जाली-बंद चौक के दोनों ओर कमरे हों ऐसा मालुम पड़ता था। जाली से बाहर दाहिने तरफ के कमरे पर बॉर्ड लगा था। ‘ऑफ़िस’।

बाईं तरफ़ थोड़े दूर छोटा सा बगीचा था। बगीचे में में बच्चों के लिए झूले, फिसल पट्टी जैसे साधन लगाए हुए थे। आसपास अमरुद, नींबू, सीताफल, अनार और थोड़े फूलों के पेड़ थे। बगीचे के पीछे चार-पांच घर दिख रहे थे। 

दाहिनी ओर बड़ा दरवाज़ा था जिससे कल रात हमने कम्पाउंड में प्रवेश किया था। अंदर की जगह सुन्दर थी। कल रात लगा भय पिघल जाए ऐसी। बाहर क्या है यह देखने दरवाज़े की ओर गया।  

दरवाज़े से निकलते ही आसपास न तो कोई मकान थे न दुकानें। दरवाज़े से थोड़ी दूर पक्की सड़क थी। सड़क के नीचे नाले से होकर छोटा सा झरना बहता था। उसके पार दूर दूर तक खेत, उसमें छोटे झोंपड़े और क्षितिज पर शहर की सोसाइटियाँ दिखाई पड़ती थीं। 

रास्ते पर ज़्यादा वाहन नहीं थे। एक-दो गाड़ियाँ या दूधवाले की मोटरसाइकल, शहर की ओर काम पर जाते हुए ग्रामजनों की साइकलों के अलावा कोई आता-जाता दिखा नहीं। उस ज़माने में आज जैसे और इतने सारे वाहन थे भी कहाँ!

फिर वापस अंदर जाने के लिए मुड़ा कि मेरी नज़र पीले मकान के आसपास लंबी चुनी हुई ऊंची दीवार पर पड़ी। सड़क के उस पार से आता प्रवाह आगे जाकर उस दीवार से घिसता चला जा रहा था। इतने बड़े कम्पाउंड में सिर्फ इतने ही मकान!

यह नंदू कहाँ रहकर क्या काम करता था यह मुझे समझ नहीं आ रहा था। अंदर  नज़दीक से देख लेने के विचार से वापिस दरवाज़े की और मुड़ा तब मेरी नज़र दरवाज़े पर लम्बी चौड़ी कमान खींचकर लिखे अक्षरों पर पड़ी। 

पांच साल की उम्र से ही सात पीढ़ी के पूर्वजों के नाम बोलना सीखा हुआ, रोज़ उनका नाम लेकर मन ही मन प्रणाम करनेवाला, गौरवशाली पिता और रुआबदार माँ की संतान मैं, मुझे कभी भी न आना हो ऐसी जगह आकर खड़ा था। जिन शब्दों से दूर भागने निकला था वह ही शब्द मेरे सामने भड़कीले लाल रंग में चमक रहा था। ….. बालाश्रम।

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