अमृता

किशनसिंह चावड़ा

यूँ तो मेरी छोटी बहन का नाम अमृता था। पर सब प्यार से उसे ‘अमु’ नाम से ही बुलाते थे। वह मुझसे तीन साल छोटी थी। मैं बारह का था तब वह नौ की थी। भाई-बहन होने से भी ज़्यादा हमारा ख़ास दोस्ती का रिश्ता था। अमु बहुत शरारती थी और मैं ज़रा शांत। इसी लिए आँगन में ज़रा भी कुछ बच्चों में तकरार जैसा होता था तब मेरे सामनेवाले का तो अमु बारह बजा देती थी। छरहरा शरीर, तंदुरुस्ती की खुशबू, सुन्दर चेहरा और तेजस्वी आँखें। अमृता की आँखों पर मैं मुग्ध! वह आँखें उसके समग्र सौंदर्य का शिखर हैं यह बात मैं थोड़ा बड़ा हुआ तब मुझे समझ आई। पर नासमझी में भी मुझे उसकी आँखें बड़ी पसंद थीं और उन आँखों पर धनुष्याकृति रचती उसकी भौएँ सहलाते मैं थकता ही नहीं था। फिर अमु नहीं होती थी तब मैं अपनी ही भौएँ सहलाता अमु को याद करता रहता। अमु को देखकर मेरी नानी राजुबा हमेशा कहती कि, ‘किशन, तेरी बा (१) छोटी थी तब बराबर अमृता जैसी ही लगती थी। अमु बड़ी होगी तब नर्मदा जैसी ही सुन्दर दिखेगी।’ एक दिन राजुबा ने मुझे और अमु दोनों को बा के बचपन की एक बात कही: ‘नर्मदा तब नौ-दस साल की होनी चाहिए, मैं खूब बिमार पड़ी थी। किसी को आशा नहीं थी कि मैं जीऊँगी। तुम छोटे तो हताश होकर रोने लगे थे। उन दिनों में एक सन्यासी भिक्षा मांगने आया। नर्मदा उसकी आदत के मुताबिक़ दोनों मुठ्ठिओं में बाजरी भरकर दौड़ी। उसकी गर्दन पर एक सोने की तार थी। उस साधू ने बातों ही बातों में घर की बिमारी की खबर जान ली। तरसा था कहकर लड़की से पानी मांगा। वह साधू नहीं, कोई अवधूत था। उसने नर्मदा को कहा कि अगर अपनी सोने की कंठी दे दे तो तेरी माँ तुरंत ठीक हो जाए ऐसी ईश्वरी भस्म दूंगा। नर्मदा ने तो कंठी निकाल दी और वह साधू चुटकीभर भस्म देकर चलता बना। लड़की ने तो वह भस्म लाकर चम्मचभर पानी से मेरे गले से उतार दी। भगवान का करना कि तब के बाद रोग जाने लगा और मैं ठीक हुई। आठ-दस दिन बाद वह सोने की तार नर्मदा के गले पर दिखी नहीं इसलिए पूरी बात समझ में आ गई। लड़की ने तो सचसच बता दिया। अंत में तुम्हारे नाना ने कहा, ‘मोई कंठी गई तो गई, आप ठीक हो गईं बस और क्या चाहिए। नर्मदा, तू घबरा मत बेटी।’ ऐसी थी तुम्हारी माँ। देख अमु तू ऐसा कुछ मत करना।’

उस दिन शाम को हम ननिहाल से घर आए तब अमु ने तुरंत बा से कहा: ‘बा, मेरे गले से सोने की कंठी निकाल ले। वरना मैं कोई साधू को दे दूंगी।’ बा पहले तो अमु का विस्फ़ोट समझी ही नहीं। वह तो मैंने पूरी बात कही तब वह हँस पड़ी और अमु को पप्पीओं का इनाम मिला। बा मुझे पकड़ने आई उतने में तो बंदा दो-तीन-पाँच हो चूका था।

अमु को पाँचीका (२) खेलने का बहुत शौक़ था। उस खेल के पीछे वह पागल थी। घंटे के घंटे यह खेल खेलते वह थकती नहीं थी और खेलने में भी एक नंबर। उस वक़्त हमारे प्रांगण में एक मारवाड़ी कुटुंब हमारे दूसरे मकान में भाड़े से रहता था। उनके बुज़ुर्ग भैरव काका राजमहल में काम करते। संगमरमर टांकने में बेजोड़। हथौड़ा जैसे उनका बच्चा था और तक्षणी उनकी दासी। वह भैरव काका एक दिन बा के लिए संगमरमर का सुन्दर खल ले आए। बा बड़ी खुश हुई। उसी वक़्त अमु ने भैरव काका का हाथ पकड़कर संगमरमर के पाँचीके ला देने का वचन ले लिया। दूसरे ही दिन अमु के सुन्दर कुके (३) आ गए। बस तब से मोहल्ले की लड़कियों में अमु का नाम हो गया। उतना ही नहीं, उसकी महत्ता भी बढ़ गई।

धीरे धीरे अमु ने खेल-खेलकर संगमरमर के कुकों को और मुलायम और चमकदार बना दिया। वह कुके तो जैसे उसका प्राण। और पाँचीका खेलती भी कैसे! एक बार उसकी चार-पाँच सहेलियों के साथ वह हमारी दहलीज़ पर कुके खेलने बैठी। और लड़कियों के कुके तो थोड़े ही ऊंचे उछलते और छूट भी जाते थे। पर अमु की बारी आई और बस हो चुका। उसके कुके बहुत ऊपर उछलते और उनके साथ उसकी आँख की कनीनिका ऊपर चढ़ती। कुकों के साथ फिर दृष्टि भी नीचे उतरती। एक तो अमु की आँखे ही तेज़ ऊपर से इस कुके के खेल ने उसे और धारदार बना दिया था। वह गुस्सा करती तब उसकी भौएँ ऐसी चढ़ती कि बा तुरंत ही झुक जाती। अमु को उसके संगमरमर के कुके अत्यंत प्यारे थे। उसे नौ साल पूरे हुए और दसवीं वर्षगाँठ तब बा से अमु ने अपने कुकों के लिए मशरू (४) की थैली बनवाई थी। कुके तो उसका अमूल्य गहना, उसकी कीमती मिल्कीयत थे।

मुझे बारह वर्ष होकर तेरहवाँ बैठा। हमारे घर में उसके बाद तुरंत धमाल शुरू हुई। धान की बोरियाँ आने लगीं। मैं शाला से आता तब बा की मदद में बुआ, मौसी, मामा सब हाज़िर रहते और धान की सफाई चलती रहती। वह तो धीरे धीरे मुझे पता चला कि मेरी शादी की तैयारी की यह शुरुआत थी। शादी का दिन जैसे जैसे पास आता गया वैसे वैसे धमाल बढ़ती गई। मेरा महत्व घर में बढ़ता चला। यह बात अमु को नई लगी। क्यों कि हमारा पहले जितना साथ अब न रहा। धीरे धीरे वह और भी कम होता चला। अमु और मेरे बीच प्यार की रेशमगाँठ ऐसी दृढ़ बंधी थी कि हम दोनों यह नई परिस्थिति सह न सके। पर अमु तो मेरे से ज़्यादा गुस्सैल। इसलिए उसका क्रोध अनेक तरह से प्रकट हुआ। उसकी अर्ज़ी को बा ने हँसकर उड़ा दिया इसलिए वह बापूजी (पिता) तक पहुंची कि भाई की शादी रोक दीजिए और शादी की पूरी बात ही उड़ा दीजिए। पर बेचारी अमु की कौन माने! कुलवान घर। अच्छी प्रतिष्ठा। सम्बन्धियों का विस्तार बड़ा। इसलिए लड़का बचपन में ही बस जाएगा इस विचार से कुटुम्बिओं के हर्ष की सीमा नहीं थी। जिस दिन मुझे पीठी (५) लगाई उस दिन तो अमु फूट फूट कर रो पड़ी: ‘ओ मेरे भैया!’ बा और बापूजी भी उसे शांत न कर पाए। फिर मैंने जब उसे बाँह में लिया तब उसकी सिसकियाँ रुकीं।

शादी में सब ने मुझे कुछ न कुछ भेंट किया। किन्हीं लोगों ने हाथ में रुपये भी रखे। कोई ज़री की टोपी लाया। मौसी सोने की चेन लाइ। मामी ने हाथ की कड़ियाँ दीं। ऐसे चीज़ें एक के ऊपर एक आने लगीं। अमु क्या देती बेचारी? सब बिखरे। जब मैं अकेला रहा तब अमु धीरे धीरे आकर मेरी बगल में लपक गई और संकोच से धीरे बोली: ‘भाई, तुम्हारे लिए मैं यह लाइ हूँ।’ कहकर उसने पाँचीका की मशरू की थैली दिखाई। मैं था तो बच्चा पर अमु की आँख से टिपकता स्नेह देखकर मैं उससे लिपट गया और हम दोनों खूब रोए।

फिर तो अमु बड़ी हुई। और सुन्दर बनी। उसके रूप में यौवन जुड़ा। उसके लावण्य में लालित्य उगा। उसकी आँखों में मस्ती के बदले लज्जा की उपज हुई। पर हमारा स्नेह उम्र के साथ बढ़ा, घटा नहीं। सब संजोग और स्थितिओं को पार कर वह और विशुद्ध और सहृदय बना। उसकी आर्द्रता बढ़ी। उसकी भव्यता पहचान में आई। उतने में तो अमु की शादी हुई। अमु अब ससुराल जाएगी इस विचार से मैं ग़मगीन हो गया। और शादी के दिन तक वह ग़मगीनी इतनी असह्य हो गई कि उस पर पीठी चढ़ी तब मैं रो दिया।

अमु की बिदाई थी। बा की आँख से सावन भादो बरस रहे थे। सगे संबंधी रोती आँखों से दिग्मूढ़ बनकर साक्षी दे रहे थे। मुहूर्त भारी लग रहा था। वातावरण में समझ आ रहा था मांगल्य और अनुभव हो रहा था कारुण्य। मैं बा के पीछे उतरे हुए चेहरे से खड़ा था। मेरे अंतर में गज़ब की असमंजस चल रही थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था। पर अकेलेपन का एहसास सर्वोपरी था। मैंने आग्रह से बापूजी से पचीस रूपए लिए। वह पैसे मैंने शादी में अमु की दी हुई उस पाँचीकावाली मशरू की थैली में उन कुकों के साथ मैंने रखे। अमु गाड़ी में बैठने चली उतने में ही मैंने वह थैली धीरे से उसके हाथ में सरका दी। उसने मेरी ओर देखा। वह आँखें मैं कभी नहीं भूलुंगा। उन आँखों में प्यार, विषाद और व्यथा की पूरी कहानी मूक क्रंदन कर रही थी। हमें रोता छोड़ अमु रोती हुई चली गई।

उसकी बिदाई हमें कुछ समझ आई अमु वापिस आई तब। शादी के थोड़े ही दिनों में मेरी वह लाडली बहन बिलकुल बदल गई थी। उसका हसता चेहरा, मुस्कराती और शरारती आँखें और उछलता पूरा अस्तित्व सबकुछ शांत हो गया। जैसे जैसे दिन गुज़रते चले वैसे वैसे अमु और शांत और होशियार हो गई।

चार साल बाद वह ससुराल से बिमार होकर घर आई तब मैं और बा उसे मुश्किल से पहचान पाएँ इतनी वह बदल गई थी। वह अमु ही नहीं, मानो उसका भूत। खूबसूरत और प्यारभरी अमु का ऐसा रूप देखकर हम डर से गए। बा तो रो पड़ी। थोड़े दिन हुए और अमु की बिमारी बढ़ी। बढ़ी तो इतनी बढ़ी कि एक दिन हमें रोता बिलखता छोड़ वह चल बसी। अमु के जाते ही घर में सन्नाटा छा गया। सनसनी टूट पड़ी। परिवार का जैसे मांगल्या मर गया।

बा की आज्ञा से तीसरे दिन मैं नर्मदा और ऑर नदी के संगम पर बसे चाणोद पर अमु के अस्थि लेकर जानेवाला था। बा और मैं अमु की पेटी की चीज़ें समेट रहे थे। उसमें से उसकी शादी के वक़्त की सौभाग्य चुनरी की गिरह से मशरू की थैली निकली। मैंने खोलकर देखा तो अंदर वे पांच संगमरमर के कुके ठिठुरकर पड़े थे। उन कुकों को देखर मेरे से न रोया गया, न ही बोला गया। बा कुके देखकर फिर मुझे देखती रही। देखते देखते देख न सकी इसलिए बाँह में भर लिया। बा की गोद में हृदय पिघल गया।

सोमनाथ की ओर से बहती आती नर्मदा से करनाळी और मांडवी के बीच जहाँ ऑर नदी मिलती है उस संगम की ओर मेरी नौका जा रही है। हाथ में अमु के अस्थि की थैली है। मेरी जेब में पाँचीका की मशरू की थैली पड़ी है और मेरे अंतर में अमु की स्मृति ज़िंदा पड़ी है। अचानक माझी ने कहा: ‘भाई, यह ऑरसंगम।’ मैंने अस्थि की थैली पानी में रखी। जी तो न चला पर पाँचीका वाली मशरू की थैली भी पानी में बहा दी। अमु के अस्थि और संगमरमर के पाँचीके पानी में बहाए उतने में लावण्य और लज्जाभरे उसके नैन, धनुष्याकृति भ्रमरों से छाए हुए मेरे सामने हंस पड़े!

– किशनसिंह चावड़ा (1904 – 1979)


(१) बा – गुजरात में आज से दो पीढ़ी पहले तक माँ को ‘बा’ कहकर संबोधित किया जाता था। आज यह शब्द ‘दादी’ / नानी के सन्दर्भ में ज़्यादा इस्तेमाल होता है, पर आज भी कई समुदायों में माँ को बा कहने की प्रथा है ।

(२) पाँचीका – पाँचीका एक पुराना गुजराती खेल है जो कंचे से थोड़े बड़े पाँच पत्थरों को उछालकर खेला जाता है।नब्बे – दो हज़ार के दशक तक यह गाँवों और छोटे शहरों में कभी कभी खेला जाता था लेकिन अब शायद लुप्त हो रहा है। जिन पत्थरों से यह खेला जाता है उन पत्थरों को भी पाँचीका ही कहते हैं।

(३) कुका – पाँचीका के पत्थरों के लिए यह शब्द भी इस्तेमाल होता है।

(४) मशरू – एक प्रकार का रेशमी कपड़ा

(५) पीठी – उत्तर भारत में शादी से पहले हल्दी लगाने की विधि को गुजरात में इस नाम से जाना जाता है। पीठी में हल्दी के अलावा चंदन, गुलाबजल, बादाम तेल इत्यादि का भी प्रयोग होता है।

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