जटा हलकारा

ज़वेरचंद मेघाणी

स्त्रैण आदमी की घर-नारी जैसी सोगभरी शाम ढल रही थी। अगले जन्म की आशा जैसा कोई कोई तारा चमक रहा था। कृष्णपक्ष के दिन थे।

ऐसी ढलती शाम के समय आंबला गाँव की चौपाल पर ठाकुर की आरती की बाट देखी जा रही है। छोटे छोटे, आधे नंगे बच्चों की भीड़ जमी पड़ी है। किसी के हाथ में चाँद जैसा चमकीला कांसे का घड़ियाल झूल रहा है; और कोई बड़े नगाड़े पर दंड के घाव करने की राह देख रहा है। शक्कर की एक मिश्री, नारियल के दो टुकड़े और तुलसी के पत्ते की सुगंधवाले मीठे चरणामृत की हरेक अंजली बांटे जाएंगे इस आशा से बालक नाच रहे हैं। बाबाजी ने अभी ठाकुरद्वार के दरवाज़े खोले नहीं। कुँए के तट पर बाबाजी स्नान कर रहे हैं।

बड़े भी नन्हे बच्चों को कमर पे बिठाकर आरती की राह देखते चौखट की कोर पर बैठे हैं। कोई कुछ बोल नहीं रहा। मन अपनेआप गहरा जाए ऐसी शाम ढल रही है।

‘आज तो संध्या बिलकुल खिली नहीं ‘। एक आदमी ने संध्या का न खिलना जैसे बड़ा दुःख हो ऐसी आवाज़ में हल्के से सुनाया।

‘ दृश्य ही जैसे मुरझा गया है ‘ दूसरे ने अफ़सोस में अपने शब्द जोड़े।

‘ कलयुग! कलयुग! रातें अब कलयुग में समझ नहीं आती, भाई! कहाँ से समझ आएंगी! ‘ तीसरा बोला।

‘ और ठाकुरजी की मूर्ती का मुख भी आज कल कितना खिन्न दिखता है। दस वर्ष पहले तो कितना प्रकाशित हुआ करता  था!’  चौथे ने कहा।

चौपाल में धीमी आवाज़ में अधखुली आँखों से बुड्ढे ऐसी बातों पर लगे हैं, उस समय आंबला गाँव के बाज़ार से होते दो मनुष्य चलते आ रहे हैं: आगे आदमी और पीछे औरत है। आदमी की कमर पर तलवार और हाथ में डंडा है। औरत के सर पर एक बड़ी गठरी है। पुरुष तो एकदम पहचाना नहीं जा रहा था; पर राजपूतानी की पहचान उसके पैरों की गति से और घेरदार लहंगे से लिपटी ओढ़नी से छुपी न रही।

राजपूत ने जब भीड़ को राम-राम न किया तब गाँवलोक को लगा के कोई अनजाने गाँव का पथिक होगा। लोगों ने उसे बारी बारी से कहा ‘ भाई, राम-राम ‘।

‘राम!’ रूखा जवाब देकर मुसाफ़िर जल्दी आगे चल दिया। पीछे अपने पैर ढँकती बीवी चलती जा रही है।

एकदूसरे के मुँह देखकर भीड़ से कुछ लोगों ने आवाज़ दी: ‘अरे ठाकुर, ऐसे कहाँ तक जाना है ?’

‘दूर तक।’ जवाब मिला।

‘ फिर तो भाई रात यहीं रुक जाओ न? ‘

‘ क्यों? क्यों परेशानी उठानी है, भाई ? ‘ मुसाफ़िर ने कतराकर टेढ़ी जीभ चलाई।

‘और तो कुछ नहीं, पर देर बहुत हो गई है, और साथ में औरत है। तो अँधेरे में ख़ामख़ा जोख़िम क्यों उठाना ? और यहाँ खाना सबके लिए बना है: हम सब भाई ही हैं। तो आप भी रुक जाइए भाई।’

मुसाफ़िर ने जवाब दिया, ‘बाहुबल नापकर ही सफर कर रहा हूँ, ठाकुरों! मर्दो को डर काहे का! अभी तक तो कोई बेहतर बलिया देखा नहीं।’

आग्रह करनेवाले गाँव के लोगों के मुँह गिर गए। किसीने कहा ‘ ठीक है! मरने दो उसे!’

राजपूत और राजपूतानी चल दिए।

**

बन बीच से चले जा रहे हैं। दिन ढल गया है। दूर दूर से ठाकुर की आरती की खनक सुनाई पड़ रही है। भूतावाल नाचने निकले हों ऐसे दूर गाँव के झुण्ड में दिए टिमटिमाने लगे। अँधेरे में जैसे कुछ देख रहे हों और वाचा से उस दृश्य की बात समझाने का यत्न कर रहे हों वैसे नगरद्वार के कुत्ते भोंक रहे हैं।

मुसाफिरों ने अचानक पीछे झुनझुने की आवाज़ सुनी। औरत पीछे नज़र घुमाए उतने में  सणोसरा गाँव का हलकारा काँधे पर डाक की थैली रखकर, हाथमें खनकता भाला लेकर अड़बंग जैसा चला आ रहा है। कमर पर नई सजाई हुई, फटी म्यानवाली तलवार टंगी है। दुनिया के शुभ-अशुभ की गठरी सर पर उठाकर जटा हलकारा चल निकला है। कितनी परदेस गए बेटों की बुढ़ियाएँ और कितने समंदरी व्यापार करते पतियों की पत्नियाँ महिने – छः महिने कागज़ के टुकड़े की राह देखती जग रही होंगी ऐसी समझ से नहीं, पर देर होगी तो पगार कटेगी उसके डर से जटा हलकारा दौड़ता जा रहा है। भाले के झूमर उसके अँधेरी रात के एकांत के भाईबंधु बने हैं।

देखते ही देखते हलकारा पीछे चलती राजपूतानी के साथ हो गया। दोनों की जाँच पड़ताल हुई। स्त्री का पीहर सणोसरा में था, इसलिए जटे को सणोसरा से आता देखकर माँ-बाप की खबर पूछने लगी। पीहर से आनेवाला अनजान आदमी भी स्त्रीज़ात के मन सगे भाई जैसा होता है। बातें करते करते दोनों साथ चलने लगे।

राजपूत थोड़े कदम आगे चल रहा था। राजपूतानी को ज़रा पीछे चलती देखकर उसने पीछे देखा। परपुरुष के साथ बातें करती औरत को दो-चार तीखे बोल कहकर धमकाया।

औरत ने कहा: ‘मेरे पीहर का हलकारा है , मेरा भाई है। ‘

‘ बड़ा देखा तुम्हारा भाई ! चुपचाप चली आ ! और महाराज , आप भी ज़रा इन्सान देखकर बात कीजिये !’ बोलकर राजपूत ने जटे को फटकारा।

‘ जी बापू !’ कहकर जटे ने अपनी गति कम की। एक क्षेत्र दूर रखकर जटा चलने लगा। जहाँ राजपूत युगल दूर नहर में उतरता है, उतने में एकसाथ बारह लोगोंने चुनौती दी ‘खबरदार, तलवारें गिरा दो!’

राजपूत के मुँह से दो-चार गालियाँ निकल गईं। पर म्यान से तलवार न निकल सकी। राह देखते बैठे आंबला गाँव के कोल्हिओं ने आकर उसे रस्सी से बाँधा, बाँधकर दूर लुढ़का दिया।

‘ ए औरत, अपने गहने उतारने लग ।’ लुटेरे ने औरत को कहा।

अनाथ राजपूतानीने अंग से एक एक गहना उतारना शुरू किया। उसके हाथ, पैर , छाती वगैरह अंग दिखने लगे। उसकी सुरेख, सुन्दर काया ने कोल्हिओं की आँखों में कामना की आग जलाई। युवान कोल्हिओं ने पहले तो ज़बानी मज़ाक शुरू किया। पर जब कोल्ही उसके अंग को छूने नज़दीक आने लगे, तब ज़हरीली नागिन की तरह फूँकार कर राजपूतानी खड़ी हो गई।

‘ अबे, गिराओ उस सती की बच्ची को !’ कोल्हीओं ने आवाज़ लगाई।

अंधेरे में औरत ने आसमान की ओर देखा। उतने में जटा के झूमर झनके। ‘ओ  जटाभाई!’ औरत ने चीख लगाई: ‘दौड़!’ ‘खबरदार! कौन है वहाँ ?’ चिल्लाता हुआ जटा तलवार खींचकर वहाँ पहुँच गया। बारह कोल्हि डंडा लेकर जटा के ऊपर टूट पड़े। जटे ने तलवार चलाई।  सात कोल्हिओं के प्राण लिए। खुदके सर पर डंडे बरस रहे हैं , पर जटा को तब घाव महसूस नहीं हुए। औरत ने चिल्लमचिल्ली कर दी। डर के मारे बाकी के कोल्हि भाग गए, उसके बाद जटा चक्कर खाकर गिर पड़ा।

औरत ने अपने आदमी को मुक्त किया। उठकर तुरंत राजपूत बोलता है, ‘चलो चलते हैं।’

‘ चलेंगे कहाँ? जनाने! शर्म नहीं आती? पाँच कदम साथ चलनेवाला वह ब्राह्मण पलभर की पहचान में ही मेरी आबरू के लिए मरा पड़ा है; और तु – मेरे सब जन्मों के साथी – तुमको ज़िंदगी प्यारी हो चली! जा ठाकुर, अपने रस्ते। अब अपना – काग और हंस का – साथ कहाँ से होगा ? अब तो इस उद्धारक ब्राह्मण की चिता में ही मैं लेटूंगी। ‘

‘ तेरे जैसी बहुत मिल जाएंगी। ‘ कहकर आदमी चल दिया।

जटा के शव को गोद में लेकर राजपूतानी प्रभात तक अंधकार में भयंकर बंजर में बैठी रही। सवेरे आसपास से लकड़ी चुनकर चिता सुलगाकर, शव को गोद में लेकर खुद चढ़ गई; आग भड़काई। दोनों जलकर ख़ाक हो गए। फिर कायर पति की सती स्त्री जैसी शोकातुर सांझ जब ढलने लगी तब चिता के अंगारे धीमी ज्योति से टिमटिमा रहे थे।

आंबला और रामधारी के बीच एक नहर में आज भी जटा का स्मारक और सती की पालि विद्यमान है।

– झवेरचंद मेघाणी (1896 – 1947)

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