कर्णलोक [3]

कर्णलोक, ध्रुव भट्ट

मामा के घर को त्याग करने के मेरे निर्णय को मैंने भाग जाने के निर्णय के तौर पर कभी नहीं स्वीकार किया। बारह-तेरह साल की उम्र में भी मैंने समझा था कि इसे तो मेरा महाभिनिष्क्रमण कहा जा सकता है।

घर छोड़ते समय मैं जो अनुभूति कर रहा था उसमें हीनता की भावना कहीं भी नहीं थी। ऐसा न होता तो दोपहर को ट्रेन पर चढ़ जाने के अलावा मैंने कुछ किया न होता, पर स्टेशन में दाख़िल होने से पहले मैंने टिकट खरीदी थी मुंबई की। मुंबई जाना नहीं था। कहाँ जाऊँगा वह पता नहीं था। मामा स्टेशन पर जांच करें तो मैं मुंबई गया हूँ यह मान लें इतना काफी था।

रास्ते में जहाँ चाहूँ वहीं उतर जाना था। कहाँ यह तय नहीं किया था। शाम को बारिश शुरू हुई। बीच के किसी स्टेशन से दो आदमी, एक औरत और एक लड़की गाड़ी में चढ़े थे।

औरत पतली, थोड़ी श्याम, सुन्दर और सौम्य पर दृढ़ मुखवाली और एक पुरुष मज़बूत शरीरवाला, जिसके विद्वान होने का आभास होता था, खादी के कुर्ते-पाजामे में। दूसरा ज़रा वृद्धत्त्व की ओर ढलता, धोती और ऊपर सिर्फ बंडी पहना हुआ।

साथ में एक किशोरी थी जिसे पलभर देखते रहने का मन करे वैसी। उसने आते ही मानो पूरा डिब्बा रोक लिया हो वैसे बेंच पर थैलियाँ रखनी शुरू कर दी। सब सामने की सीट पर बैठने लगे। थोड़ा सामान सीट के टेल रखकर लड़की फिर से ऊपर के छज्जे पर जा बैठी। एक थैला सर पर रखकर वहाँ लेटकर कोई पत्रिका पढ़ने में व्यस्त हुई। गाड़ी चली, न चली और फिर से वह नीचे उतारकर दूर जाते स्टेशन को आवाज़ें देती रही।

उन लोगों के साथ जो स्त्री थी वह अपनी बेंच से उठकर मेरे पास आकर बैठी। पूछा ‘तुम्हारा नाम क्या है बेटे? अकेले ही हो?’

जवाब में क्या कहना था यह जल्दी सोचा न गया। पल भर सुना अनसुना कर कुछ बोले बग़ैर खिड़की से बाहर देखता रहा। उस धोती-बंडी वाले ने भी मुझे ध्यान से देखा।

मुझे ज़्यादा सताये बिना वह स्त्री उस बंडी वाले की ओर देखकर बोली ‘नंदू, खाने का डिब्बा निकाल ले भाई।’

डिब्बा खुलते ही थेपले और अचार की खुश्बू फैल गई। खिड़की पर आकर बैठी। बैठी हुई लड़की ने तुरंत खड़े होकर छज्जे पर से एक थैली में से थोड़े अख़बार बाहर निकालकर नीचे देते हुए कहा ‘लीजिये निम-बहन।’

निमु बहन ने अखबार के टुकड़े कर हर एक में थेपला और अचार रखे। एक भाग ऊपर देते हुये कहा ‘दुर्गा, ले। और तुम्हारी थैली में भाईजी का नाश्ता होगा, वह दे।’

दुर्गा अपनी थैली में ढूंढने लगी। उसमें से भाखरी और मेथी की सब्ज़ी निकाली और नीचे आकर उस खादीधारी को देते हुए कहा ‘लीजिए भाईजी, आपका फीका।’ फिर कोई फल दिखाते हुए बोली ‘चाहिए?’

दुर्गा के चेहरे का घाट, उजला चेहरा, बड़ी आँखें सभी कुछ उसे उसके साथिओं से अलग करते थे। उसके लक्षण भी उसके धीर-गंभीर दिखते साथिओं में किसी से मिलते नहीं थे। शायद उन लोगों के किसी मित्र की या कुटुम्बीजन की लड़की होगी ऐसा मैंने अनुमान लगाया।

ये लोग शान्ति से खा सकें इस लिए मैं दूसरी तरफ जाने के लिए उठा तो निमु बहन ने स्नेहपूर्वक रोकते हुए कहा ‘बैठो न बेटे। चलो हमारे साथ थोड़ा खा लो।’ फिर नाश्ता हाथ में देते हुए कहा ‘ले भाई। ये लो तुम्हारा भाग। और चाहिए तो डिब्बे से ले लेना।’

थोड़ा खंचित हो कर मैंने थेपले लिए और खाने लगा।

सामने बैठी दुर्गा मुझे देखती रही। फिर बोली ‘अचार पसंद है?’ जवाब की राह देखे बिना उसने परोस भी दिया।

मैंने सोचा कि वह थोड़ी देर और बोलती रही होती तो अच्छा होता। पर वह तो खिड़की से बाहर अंधेरे में दूर के गाँवों में जलते दीये देखते देखते खा रही थी। मैं उसकी ओर देखता रहा। अचानक मैं उसे देख रहा हूँ यह अंदाज़ा दुर्गा को लग गया। थोड़ा भी संकोच किये बिना उसने जो सोचा वह ही कहा ‘खाने पर ध्यान दो।’ फिर स्वाभाविक तरीके से फिर से बाहर देखती रही।

पेट में ठंडक हुई इसलिए बैठे ही बैठे कब नींद आ गई पता न चला। आधी रात में एक बड़े स्टेशन पर नंदू ने जगाया। ‘उतरना है?’

निमु बहन और भाईजी कहीं दिखे नहीं। ये लोग कौन हैं यह भी मुझे पता नहीं था। थोड़ी मुश्किल सी हो गई। नंदू को ना कहूँ तो शायद मुझे आगे कहाँ जाना है वह बताना पड़े उससे अच्छा उसके साथ उतारकर फिर किसी बहाने चले जाना सहल लगा।

गाड़ी से उतरते उतर तो गया; पर फिर तुरंत याद आया कि दरवाज़े पर टिकट मांगेंगे। मेरी टिकट मुंबई की थी इसलिए शायद कोई पूछताछ होगी।

थोड़ी घबराहट में जेब में हाथ डाला तो टिकट ग़ुम। जिस जेब में देख रहा था उसी में टिकट रखी थी इतना मुझे विश्वास था, फिर भी दूसरी जेब की भी जांच की। टिकट वहाँ भी नहीं थी। 

थैली में तो मैंने रखी ही नहीं थी फिर भी थैली में देखने के लिए मैं नीचे बैठा और दुर्गा बोली ‘सामने देखो तो सही, दरवाज़े पर कोई नहीं।’

ऊपर देखा तो लोग दरवाज़े से बेरोकटोक आ-जा रहे थे। मैं इतनी उलझन में था कि टिकट ढूंढ रहा था इसकी खबर दुर्गा को कैसे लगी यह ख़याल मुझे नहीं आया था। बाहर निकलते मुझे आभास हुआ कि दुर्गा किसी रहस्यमय तरीके से हंस रही थी।

बाहर हलकी हलकी बारिश हो रही थी। थोड़ा पानी भी भर आया था। नंदू ने दुर्गा से कहा ‘तुझे नेहा बहन के वहाँ छोड़ आता हूँ। बारिश हो रही है और साइकल पर तीन लोग बैठ नहीं पाएंगे।’

‘ठीक है पर सुबह स्कूल का क्या?’ दुर्गा बोली।

भागने का मौका देखकर मैंने कहा ‘तो आप लोग चले जाइए। मैं अपना देख लूंगा।’

‘नहीं नहीं, तुम साइकल से चलो आराम से। दुर्गाई को मैं सवेरे सवेरे ले जाऊँगा।’ नंदू ने कहा। उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल था। उन लोगों के साथ चलने के अलावा मैं कुछ कर न सका।

थोड़ा आगे जाकर एक मकान के पास हम रुके। घंटी बजाकर घर के मालिक को जगाया। एक प्रभावशाली युवती ने दरवाज़ा खोला और बोली ‘आईए। निमु बहन और भाईजी नहीं आए?’

वे लोग आगे आश्रम के रास्ते पर उतर गए। रात स्टेशन पर बिताकर सुबह की बस से आश्रम तक पहुँच जाएंगे।’ नंदू ने कहा और अंदर आते बोला ‘इस दुर्गा को रात यहीं छोड़कर जा रहा हूँ। सवेरे जल्दी आते-जाते किसी के साथ भेज दीजिएगा। वरना लेने आ जाता हूँ।’

‘ठीक है, मैं ही छोड़ दूँगी। और क्यों न आप सब भी रुक जाइए। सुबह चले जाना।’ उस युवती ने कहा। उसने मेरी पहचान न पूछी इसलिए मेरी एक मुश्किल तो काम हुई।

‘नहीं नेहा बहन, एक बार वहाँ पहुँच जाने के बाद ही थोड़ा आराम मिलेगा।’ नंदू ने कहा और मेरी ओर देखकर बोला ‘चलो।’

बारह-तरह वर्ष की उम्र में गृहत्याग करके निकले किशोर की होती है वैसी मूढ़ स्थिति मेरी भी थी। पकड़ा गया तो वापिस जाना असह्य हो जाएगा। किसी अनजान टोली में फंसने का भय सताता था। पिछली रात निमु बहन, दुर्गा, नंदू और अब नेहा बहन के बर्ताव से एकाधी रात नंदू के वहाँ बिताने में मुझे कुछ भय जैसा तो नहीं लगा था। उलटी थोड़ी आत्मीयता और राहत ही महसूस हुई थी।

मैंने कहा ‘हाँ। चलो।’

उस रात नंदू मुझे अपनी साइकल पर बिठाकर शहर से दूर ले गया। खेतों के बीच अंधेरे रास्ते पर आधा-एक घंटा चलने के बाद उसने साइकल एक बड़े दरवाज़े में मोड़ ली और दीवार के पास बंधी तीन खोलियों में से आखिरी खोली के पास मुझे उतारकर ताला खोलने लगा।

घर में प्रवेश कर मुझे एक कोरी धोती हाथ में थमाकर अपना शरीर गमछे से पोछते नंदू ने मुझे कहा था ‘घर से भागे हुए लड़के को तो पुलिस बुलाकर वापिस घर भेजना चाहिए। मुझे भी वैसे ही करना चाहिए था। पर तेरी शकल देखकर लगता है कि तुझे भागना पड़ा न होता तो तू भागा न होता। ज़रूर कोई वजह होनी चाहिए वर्ण कोई घर क्यों छोड़ता है भला? यह तेरा चेहरा ही कहता है कि तू वैसा नहीं है।’

यह सुनते ही मैं हक्काबक्का रह गया। मैं घर से निकल आया हूँ यह बात इस आदमी ने कैसे जानी यह मुझे समझ में नहीं आया। मैं ज़रा रुका और बोल दिया ‘मैं घर से भागा नहीं। मेरा घर ही नहीं।’

‘भागा नहीं? वाह! भागे बिना रेलवे के डिब्बे में बेंच पर बैठने पहुँच गए!’ कोने से अंगीठी खींचता नंदू मुझे देखकर हंसा, ‘तुम्हे और भी बहुत कुछ कहना होगा, पर अभी यह नंदू कुछ सुननेवाला नहीं। रहते रहते सब पता चल ही जाएगा। अभी तो मेरे मन में सुबह के काम की पीड़ा है। थोड़ी बहुत रात रह गई है उसमें नींद करनी है। ‘ कहकर उसने पानी पिया और मुझे पानी थमाते हुए बोला ‘तुम्हे भूख लगी हो तो डिब्बे में बिस्कुट पड़े होंगे।’

‘गाडी में निम बहन और आप लोगों ने मुझे खाना दिया था।’ मैंने कहा। 

‘देंगे ही तो। निम बहन तो बिलकुल देंगीं। वह नहीं भी होतीं तो भी तुझे कोई भी देता। तेरा ऐसा रंग और शक्ल देखकर तुझे दिए बिना और भी कोई रह पाएगा ?’ नंदू जल्दी में बोला। 

मैं उसका कमरा देखता रहा। इतनी देर में नंदू ने घर के पिछवाड़े में हाथ धोये और पोछते पोछते फिर कहने लगा ‘तेरी यह राजकुमार जैसी शक्ल-सूरत देखकर ही निमु बहन ने मुझे कहा था कि, तुम्हें – नए नए भगौड़े को इधर ले आऊं। मुझे भी समझ में आ गया था कि तुझे यहीं लाना पड़ेगा। वरना कौन जाने किस के हाथ लग गए होते।  सब आरासुरवाली माता का ही किया होना चाहिए। मान लो कि तुम कवच-कुंडल लेकर जन्मे होंगे। वरना तू बैठा हो उसी डिब्बे पर निमु बहन चढ़ेंगी ही क्यों!’

नंदू थोड़ा आवेश में था। खटिया लगाते वह फिर बड़बड़ाने लगा ‘अब अंगीठी जला, बारिश में भीगे हैं तो खोली गरम रखनी पड़ेगी। बीमार पड़ेंगे तो मुश्किल हो जाएगी। फिर परसो तो इन्स्पेक्शन आनेवाला है। कई इंतज़ाम करने पड़ेंगे। दुर्गा को चुप रहने के लिए समझाना पड़ेगा या फिर कहीं बाहर भेजना पड़ेगा। वह कोई मेरे-तुम्हारे जैसी इंसान थोड़ी है। वह जगज्जननी तो अपनी इच्छा से आई है इस पीले मकान में। उसे किस बात का डर!’

बात करते करते अचानक रुककर नंदू ने फिर कहा ‘अंगीठी लगा ले और तू अपना बिस्तर बना ले। मुझे अभी ध्यान-पूजा भी करने भी बाकी हैं। सोने से पहले कर लूँगा तो शांति मिलेगी। 

मैं देखता रहा। पनियार, डिब्बे-डिब्बियाँ – पुरुष के हाथों बसाया हुआ घर। इस खोली में कोई स्त्री शायद कभी नहीं रही होगी। दुर्गा नंदू के साथ तो नहीं रहती होगी? कुछ समझ नहीं आ रहा था। 

नंदू की पूजा हो गई। हम दोनों एक भी शब्द बोले बिना सो गए। मेरी चटाई ज़मीन पर और नंदू खटिया पर सोया। 

इन्स्पेक्शन है। दुर्गा को समझाना पड़ेगा। यह कुछ मुझे स्पष्ट समझ नहीं आ रहा था। नंदू ने तो ‘तेरी बात नहीं सुननी’ ऐसा कह ही दिया था। फिर ऐसी सब यहाँ की बातों में पड़ने का ख़याल तब नहीं आया था। कहाँ आ फँसा हूँ यह जानने जितना होश भी मुझे नहीं था। नंदू की बातें मुझे अधेड़ उम्र पार करने के छोर पर खड़े अकेले आदमी की बड़बड़ाहट से विशेष और कुछ नहीं लगती थी। एक लड़की को जगजननी कह दे यह क्या बात हुई!

हमारी आँख लगी न लगी कि दरवाज़े पर कोई आया और भारी आवाज़ में बोला ‘नंदू महाराज, आ गए क्या? बहन ने पुछवाया है क्या आपने दुर्गा के साथ बात कर ली?’

‘नहीं की। कल कर लूंगा।’ नंदू ने सोते सोते ही जवाब दिया।  

फिर बड़बड़ाते बोला ‘मुझे जो कहते हो वह बात खुद क्यों नहीं कर लेते? कोई गलती-गुनाह जताना हो तब तो सब खुद ही उसे कहने लगते हो। अब उसकी ज़रूरर आन पड़ी तब नंदू हाथ याद आता है?

यह सब सुनकर मेरी मुश्किल बढ़ी। यहाँ किस बात का इन्स्पेक्शन हो रहा होगा? शायद पुलिस आनेवाली होगी उस ख़याल से डर लगा। इस सुनसान एकांत माहौल में मन ही मन रोना आ रहा था। ट्रेन और स्टेशन का भरा-पूरा कोलाहलमय संसार छोड़कर नंदू के साथ आने को तैयार हो गया उसका पछतावा भी शायद हुआ होगा। याद नहीं। जाने किसी रहस्यमय जगह में कैद हो गया हूँ ऐसा महसूस हो रहा था। 

नींद से भी चौंककर जग जाता था। इसलिए सुबह उठने में देर हुई। पूजा के झरोखे में पड़े ताज़े फूल देखकर समझ गया कि नंदू नहाकर और पूजा करके बाहर निकल गया है। 

रात वह दुर्गा जल्दी आ जायेगी यह बात की थी, वह आ गई हो ऐसे कोई निशान नहीं थे। शायद नंदू उसे लेने गया हो। घर खाली था। 

मैंने कमरे का दरवाज़ा खोला और बाहर आया। चारों ओर से कम्पाउंड वॉल से घिरी जगह के बीच सुन्दर पुराने सरकारी मकान जैसा पीला मकान। अस्पतालों या स्कूलों में होता है वैसे ही आगे के भाग में दो कमरों के बीच से पीछे के आँगन में जा सकें वैसी रचना थी। आँगन में जाने का रास्ता जाली-बंद था। आँगन में कुछ बच्चे और एक स्त्री किसी काम में लगे हों ऐसा आभास होता था। उस जाली-बंद चौक के दोनों ओर कमरे हों ऐसा मालुम पड़ता था। जाली से बाहर दाहिने तरफ के कमरे पर बॉर्ड लगा था। ‘ऑफ़िस’।

बाईं तरफ़ थोड़े दूर छोटा सा बगीचा था। बगीचे में में बच्चों के लिए झूले, फिसल पट्टी जैसे साधन लगाए हुए थे। आसपास अमरुद, नींबू, सीताफल, अनार और थोड़े फूलों के पेड़ थे। बगीचे के पीछे चार-पांच घर दिख रहे थे। 

दाहिनी ओर बड़ा दरवाज़ा था जिससे कल रात हमने कम्पाउंड में प्रवेश किया था। अंदर की जगह सुन्दर थी। कल रात लगा भय पिघल जाए ऐसी। बाहर क्या है यह देखने दरवाज़े की ओर गया।  

दरवाज़े से निकलते ही आसपास न तो कोई मकान थे न दुकानें। दरवाज़े से थोड़ी दूर पक्की सड़क थी। सड़क के नीचे नाले से होकर छोटा सा झरना बहता था। उसके पार दूर दूर तक खेत, उसमें छोटे झोंपड़े और क्षितिज पर शहर की सोसाइटियाँ दिखाई पड़ती थीं। 

रास्ते पर ज़्यादा वाहन नहीं थे। एक-दो गाड़ियाँ या दूधवाले की मोटरसाइकल, शहर की ओर काम पर जाते हुए ग्रामजनों की साइकलों के अलावा कोई आता-जाता दिखा नहीं। उस ज़माने में आज जैसे और इतने सारे वाहन थे भी कहाँ!

फिर वापस अंदर जाने के लिए मुड़ा कि मेरी नज़र पीले मकान के आसपास लंबी चुनी हुई ऊंची दीवार पर पड़ी। सड़क के उस पार से आता प्रवाह आगे जाकर उस दीवार से घिसता चला जा रहा था। इतने बड़े कम्पाउंड में सिर्फ इतने ही मकान!

यह नंदू कहाँ रहकर क्या काम करता था यह मुझे समझ नहीं आ रहा था। अंदर  नज़दीक से देख लेने के विचार से वापिस दरवाज़े की और मुड़ा तब मेरी नज़र दरवाज़े पर लम्बी चौड़ी कमान खींचकर लिखे अक्षरों पर पड़ी। 

पांच साल की उम्र से ही सात पीढ़ी के पूर्वजों के नाम बोलना सीखा हुआ, रोज़ उनका नाम लेकर मन ही मन प्रणाम करनेवाला, गौरवशाली पिता और रुआबदार माँ की संतान मैं, मुझे कभी भी न आना हो ऐसी जगह आकर खड़ा था। जिन शब्दों से दूर भागने निकला था वह ही शब्द मेरे सामने भड़कीले लाल रंग में चमक रहा था। ….. बालाश्रम।

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कर्णलोक [४]

अनुवाद, कर्णलोक, ध्रुव भट्ट

चला ही गया होता। नंदू को मिलने भी रुका न होता। बस थैली लेकर चलते बनने की देर थी पर, जहाँ खड़ा था उधर से वापिस मुड़ते ही मैंने पीले मकान वाले चौक की जाली पार कर आती हुई दुर्गा को देखा। पिछली रात उसकी एक झलक देखि थी। आज सुबह वह कुछ अलग ही दिखी। तेज़ गुलाबी रंग के फ्रॉक में सजी दुर्गा को देखते ही मैं अवाक् हो देखता रहा।

इस पृथ्वी पर जन्म लेकर मैंने अनेक सौंदर्य देखे हैं।मैं उनसे अभिभूत भी हुआ हूँ यह स्वीकार करने में भी हिचकिचाऊंगा नहीं। भोर के गुलाबी रंग से लेकर रात के तारे जड़े आकाश की मोहिनी, फूलों के रंग, पंछिओं की उड़ान, या बछड़ों की आँखों का आश्चर्य। इन सब सौन्दर्यों से कभी कभी दिग्मूढ़ भी हुआ हूँ। पर यह! एक अनाथ-आश्रम में ! ऐसी लड़की! शांत, शीतल, अलग।

मैं उसे देखता रह गया। दुर्गा की ऊँगली पकड़कर एक ओर छोटा लड़का और दूसरी ओर एक छोटी डेढ़-दो साल की लड़की चल रहे थे। उनके थोड़े पीछे एक थोड़ा बड़ा लड़का चला आ रहा था। मुझ पर उसकी नज़र पड़ते ही दुर्गा ने उसकी उम्र के हिसाब से थोड़ा छोटा आता फ्रॉक नीचे खींचा और क्षोभ या संकोच के बिना हंसी। वे लोग बाग़ में गए।

मुड़ कर जाने के वक्त ही कौन जाने कौन सा एहसास मुझे बाग़ में ले गया! वहाँ गया और एक झूले पर झूलने लगा। दुर्गा बच्चों को फिसल पट्टी पर फिसला रही थी उसे देखा किया। मुझे एक पल के लिए मन भी हुआ कि झूले से उतरकर बच्चों को झूलने दूँ। पर उससे पहले वे सब फिसल पट्टी छोड़ एक अमरुद के पेड़ के नीचे जाकर फल गिनने लगे।

‘गिनकर दिखाओ कितने हैं ?’ दुर्गा ने बच्चों को पूछा।

‘दुर्गाई, वह देख पका हुआ.’ बच्ची बोली।

‘हाँ, पीला होने को आया है।’ उस बड़े लड़के ने जवाब दिया। वे गिनने के बदले पक्के अमरुद देखने में लीन हो गए।

नंदू ने रात को किया हुआ दुर्गा का वर्णन मुझे याद आया। इन्स्पेक्शन के वक़्त मौन रहने के लिए दुर्गा को समझाना है यह बात किसी ने बहन के नाम से कही थी यह भी मुझे याद आया। जिसे समझने के लिए यहाँ की संचालक बहन इतनी उत्सुक है, नंदू जिसे जगतजननी कहता था, उसे मैं भी ज़रा ध्यान से देखने लगा।

दुर्गा और बच्चे अपनी बातों में मसरूफ थे। थोड़ी देर के बाद झूला छोड़कर मैं वे सब खड़े थे उस ओर चला। इस बार मैंने पीछे के घर से निकलकर तेज़ी से चली आ रही एक थोड़ी श्याम, ज़रा भारी शरीर वाली और भूरे रंग की साड़ी पहनी हुई चालीस साल के आसपास की उम्र की स्त्री को देखा। मैं रुक गया। उन बच्चों का ध्यान अभी भी अमरुद में ही था।

‘क्या कर रहे हो यहाँ, बाहर यहाँ वहाँ भटकने से मना किया है न? स्कूल में छुट्टी क्या हुई कि तुरंत बेलगाम मूर्ख जानवरों की तरह निकल पड़े!’ वह औरत नज़दीक आते बोली। छोटे बच्चों के साथ इतनी सख़्ती से बात करते मैंने शायद ही किसीको सुना होगा। एक-आधा कदम आगे बढ़कर में फिसल पट्टी के पास रुक गया।

छोटे बच्चों ने चौंककर पीछे देखा। उनकी शक्ल से नूर उड़ गया। दुर्गा पीछे देखे बिना शांत रहकर, जवाब दिए बिना अपने साथी बच्चों के हाथ पकड़कर अमरुद देखती खड़ी रही।

‘दुर्गा, तुझे पूछ रही हूँ, सुन रही हो?’ औरत फिर से बोली।

‘क्या?’ दुर्गा ऊब रही हो वैसे बोली और पीछे मुड़ी।

‘क्या, क्या? यह बाहर इधर-उधर भटक रहे हो उसके बारे में पूछ रही हूँ।’ औरत बोली और फिर कहा ‘परसो तुम्हारे चचा इन्स्पेक्शन के लिए आएँगे। तब कोई गड़बड़ नहीं चाहिए, समझी?’

‘बाहर कहाँ घूम रहे हैं। कम्पाउंड में ही तो हैं।’ दुर्गा ने दूसरी बात का जवाब न दिया।

‘कम्पाउंड में ही तो हैं? अच्छा?’ उस औरत ने दुर्गा की नक़ल बनाते हुए कहा, ‘अमरुद चुराने निकले हो यह क्यों नहीं कहती?’

अब दुर्गा का स्वर बदला, ‘देखो नलिनीबहन, झूठा आरोप न लगाइए। अमरुद तो किसीने छुआ भी नहीं।’

‘सामने जवाब देती है? एक लगाउंगी न अभी। …’ नलिनीबहन ने कहा और एक को फटकारनेवाली हो वैसे हाथ उठाया।

दुर्गा ने तुरंत बच्चों के अपनी आड़ में लिया और बोली, ‘किसीको मारना नहीं है। खाली फ़ालतू डांटिए मत।’

खुद को बेवहज गुस्सा क्यों आ रहा था यह न समझ आया हो वैसे नलिनीबहन अकड़ गई, फिर वापस जाने लगीं और दुर्गा को मार न सकने का बदला ज़बान से ले रहीं हो वैसे ज़ोर से बोलीं, ‘कौन जाने किसके पेट की, किस ज़ात की है।’ मैं शर्म से नीचे देख गया।

इस ताने से उस किशोरी के छोटे से हृदय में कितना बड़ा तूफ़ान उठा होगा यह मुझसे बेहतर वहाँ कोई समझ नहीं सकता था। फिर भी आश्चर्य की बात यह थी कि दुर्गा के मुख पर क्रोध के या उल्टा वार करने के कोई चिह्न उभरे नहीं थे। उसने शांत, निर्मल और दृढ़ स्वर में कोई पक्की बात कह रही हो वैसे कहा ‘तुम्हारी ही ज़ात की हूँ।’

ख़तम! तीर छूट गया था। अनर्थ होने का निर्माण था। बहन खड़ी रहीं, आसपास देखकर नीचे पड़ी हुई एक डाली हाथ में ली, दुर्गा की ओर मुड़ी और आगे आकर बोली, ‘क्या कहा? खूब चढ़कर बोल रही है। फिर से बोल तो!’

‘हाँ, तेरी ही ज़ात की हूँ।’ दुर्गा उसी स्वर में फिर से बोल गई। वह ज़रा भी डरी नहीं और हिचकिचाई भी नहीं। छड़ी का घाव झेलने स्वस्थ खड़ी रही। नलिनीबहन एकदम नज़दीक आ गईं।

दुर्गा की स्वस्थता से पराजित होकर, परसो इन्स्पेक्शन के बारे में याद कर, दुर्गा शायद विरोध में खड़ी हो जाएगी उस भय से या जिस भी वजह से पर बहन दुर्गा पर वार न कर सकी। अचानक ही उन्होंने बात बदली। आगे झुककर छोटी करमी को पकड़कर दुर्गा के पीछे से बाहर खींचा और बोली, ‘चोर की बच्ची, अमरुद चुराने हैं? यह ले जा।’ बोलते बोलते ही उन्होंने छड़ी चलाई।

मैंने बराबर देखा था। करमी के मुँह से आवाज़ नहीं निकली थी. वह सिकुड़कर दुर्गा से चिपक गई। दुर्गा ज़रा भी हिली नहीं थी, सिर्फ उसका हाथ आगे आया था। ‘इतनी सी छोटी करमी को …?’ कहकर आगे के शब्द दुर्गा बोली नहीं थी यह भी मुझे बराबर याद है।’

मैं ज़्यादा दूर तो नहीं था। सब दिखे, सुनाई दे उतना ही अंतर था, फिर भी नलिनीबहन के हाथ से छड़ी दुर्गा के हाथ में कैसे आई यह मैं देख नहीं पाया था। दुर्गा का सिर्फ हाथ ही चल रहा था। शरीर स्थिर था। ख़ास कोई गति हुई नहीं थी। सट, सट आवाज़ी आई और पतली डाली की छड़ी टूट गई।

दुसरे पल मैंने देखा तो दुर्गा हाथ में बचा हुआ टुकड़ा ज़मीन पर फ़ेंक रही थी। फिर ज़रा भी अशांत हुए बिना उसने बच्चों का हाथ पकड़कर उन्हें रास्ता दिखाया, ‘चलो’।

मुझे सबसे बड़ा आश्चर्य इस बात से हुआ था कि यह सब करते हुए भी दुर्गा एकदम स्वस्थ रही थी। इतनी शांत, निश्चल, दृढ़ निश्चयवाली और खुद क्या करेगी उसका स्पष्ट निर्णय दिखाती रेखाएँ किसी चेहरे पर कदाचित ही दिखाई देती होंगी।

वहाँ क्रोध भी प्रकट नहीं हुआ था। सट-सट छड़ी चली होने के बावजूद कुछ भी हिंसक नहीं था। बदला लेने का संतोष या फिर आगे क्या होगा इस बात की चिंता कुछ भी वहाँ नहीं था।

वह घटना नहीं घटती तो मैं उस पीले मकान का पड़ौसी बना न रहता। मुझे बराबर याद है। कुछ भी न हुआ हो वैसे दुर्गा बच्चों के साथ बातें करती चली गई थी। नलिनीबहन उसे जाते देखती रही। मैं वहाँ से जाने की तैयारी कर रहा था कि उनकी नज़र मुझ पर पड़ी।

‘तू कौन है, बे?’ स्वस्थता धारण करने की कोशिश करते हुए नलिनीबहन ने पूछा।

मैं कुछ उत्तर दूँ उससे पहले हम दोनों की नज़र बाग़ के छोर पर साइकिल टिकाते नंदू पर पड़ी।

‘बहन, मेरे भाईबंधु का लड़का है। भतीजा ही मान लीजिए।’ बोलते हुए नंदू हमारे पास आया।

नलिनीबहन कुछ बोली नहीं। मुझे ध्यान से देख रही हो वैसे मेरी ओर देखा और नंदू से कहा, ‘नंदू, तू ऑफिस में आ।’ फिर ऑफिस की ओर चली गई। जाते जाते बोली, ‘भानजा हो या भतीजा, तेरा जो भी है उसे रोककर रखना। मुझे मिले बिना वापिस चला न जाए।’

मुझे पता था कि नंदू का सगा या उसके मित्र का बीटा हु यह बात नलिनीबहन ने सिर्फ सुनी थी। माननी अभी बाकी थी। नंदू भी यह बात न समझे ऐसा तो नहीं था।

इस बात की शायद जांच होगी। उसका सामना करने के लिए मैं तैयार नहीं था। इस सब से अधिक तो अनाथ-आश्रम के नाम से जाने जाते किसी स्थान पर रहने के लिए मेरा मन कभी राज़ी होनेवाला न था। मेरे मम्मी-पापा नहीं। कोई नज़दीकी रिश्तेदार नहीं। फिर भी कोई मुझे अनाथ कहे यह मुझे किसी सूरत में मंज़ूर नहीं था।

अनाथ कहलाते मानव संतानों के बारे में मेरे मन में एक पक्की धारणा थी। मैं जिस तरह से समझता था कि वे जन्मते थे वैसे मैं नहीं जन्मा था। मामी का घर छोड़ने के कारणों में मुख्य, आस-पड़ोस से सुनना पड़ता यह ‘अनाथ’ शब्द ही तो था!

नंदू बहन की कचहरी में गया। नंदू की खोली की ओर जाते ही मैं अकेले में बोल पड़ा, ‘चला जाऊँगा। यहाँ नहीं रहूँगा।’

बड़ी देर बाद नंदू खोली पर आया कि तुरंत मैंने मन की बात उसे कही। ‘मुझे यहाँ नहीं रहना।’

वह मेरी ओर देखकर हंसा। मैंने फिर से कहा, ‘आप भले ही हँसिए, पर मैं यहाँ से चला जाऊँगा।’

‘चले जाना, पर कहाँ जाएगा मुन्ना?’ नंदू ने ज़रा भी ताना मारे बिना बिलकुल सहज तरीके से पूछा। ‘घर वापिस जाना हो तो बताना। मैं ही छोड़ आऊंगा। इसके आलावा यह नंदू तुझे और कहीं जाने नहीं देगा। स्टेशन पर रहने का ख़याल हो तो भूल जाना। ऐसा सुन्दर चेहरा लेकर तुझसे वहाँ रहा जा सके यह बात बननेवाली नहीं।’

नंदू की बात मुझे सच लगी थी। वापिस जाने से मामी की और मेरी मुश्किलें बढ़ने के अलावा कुछ होनेवाला नहीं था। स्टेशन पर या कहीं और पुलिस या उनके प्रीति-पात्र मुझे चैन से रहने दे यह होनेवाला नहीं था। मुझे मुश्किल में पड़ा देख नंदू मेरे पास आया।अपने अलग अंदाज़ में मुझे समझाने बैठा, ‘सुन, तुम्हें यहां रखना भी नहीं है। यह नंदू सुबह से शहर गया था वह तेरे लिए। महेशभाई को कहकर तेरे लिए सब व्यवस्था कर दी है। चल खड़ा हो।’ कहकर उसने मेरी पीठ थपथपाई।

कौन महेशभाई और क्या आयोजन यह समझना अभी बाकी था। नंदू के साथ जाऊं तो समझ में आनेवाला था। दरवाज़े की ओर चलते नंदू बड़बड़ाते हुए बोला, ‘बहन ने आज बड़ी गड़बड़ कर दी। मेरी माँ को परेशान किए कुछ भला नहीं होनेवाला। पर वह भी बेचारी क्या करे! जो काम उनको करना है वह सरकार उन्हें दे नहीं रही। नहीं करना है वह गले पड़ा है। आख़िर हम सब इंसान हैं।’ वह सुबह के प्रसंग के बारे में बात कर रहा था यह समझ में आया।

हम मुख्य द्वार से बाहर निकले। रास्ते में नंदू अपने तरीके से जो भी बड़बड़ाया था उससे दो बातें समझ आतीं थीं। एक तो यह कि मेरी और नंदू की कोई पहचान नहीं यह बात नंदू नलिनीबहन से छुपा न सका था। और दूसरी यह कि कोई महेशभाई नामक गृहस्थ की, झील के किनारे किले की दीवार से सटकर लगी ज़मीन पर मेरे लिए साइकिल रिपेरिंग और चाय-पानी का छोटा सा ठेला लगाने की व्यवस्था नंदू कर आया था। दरवाज़े से दाहिनी ओर थोड़े दूर लकड़ियाँ, पट्टियाँ, लोहे के एंगल और थोड़ा प्लास्टिक का कपड़ा ये सब पड़े थे। नंदू मुझे वहाँ ले गया और कहने लगा, ‘यह ज़मीन और ये औज़ार सब महेशभाई के हैं। उन्होंने तुम्हें यहां जो करना हो वह करने के लिए अनुमति दी है, पर मुफ्त कुछ भी नहीं। तुझसे हो सके उतना भाड़ा देना है।’

मैं वहाँ पड़ी चीज़ें देखता रहा। कुछ बोला नहीं। नंदू को लगा कि थोड़ा घबराया हूँ। वह फिर बोलने लगा ‘पैसे अभी नहीं मांगेंगे। तुम कमाओ तब थोड़ा देते आना।वे नवाबी इंसान हैं। यहाँ वसूली करने नहीं आएँगे।हमें खुद उनके ऑफिस जाकर दे आना होगा। नहीं जा सको तो मुझे दे देना मैं पहुंचा दूंगा।’

मैंने अभी भी कोई जवाब न दिया इसलिए नंदू की अधीरता बढ़ी। रोने जैसी आवाज़ में वह कहने लगा, ‘निमु बहन ने मुझे तेरी ज़िम्मेदारी सौंपी है भाई, मैं तुम्हें और कहीं जाने नहीं देनेवाला। अंदर तो मैं तुम्हें रख नहीं पाऊंगा। मुन्ना, मेरी मान। साइकिल पंचर ठीक करना और चाय-पानी का ठेला लगाना। अपने पैर पर खड़ा हो जा फिर चले जाना अपने रास्ते। यह नंदू तुझे रोकेगा नहीं।’

मैंने नीचे झुककर लोहे की एंगल उठाई। नंदू देखता रहा और पूछा, ‘खुदाई के औज़ार होंगे?’

उस दिन का काम ख़तम होने के बाद हम उसकी खोली की ओर जा रहे थे तब नंदू ने थोड़ी नर्म आवाज़ में कहा, ‘तुझे यहां नहीं अच्छा लगेगा मैं जानता हूँ मुन्ना, मुझे भी सब साफ़ समझ आता है कि यह जगह तेरे लिए नहीं है। यह काम भी तेरा नहीं है। इतना सुन्दर चेहरा! एक तू और एक वह मेरी माँ। तुम दोनों को तो यहाँ आना भी क्यों होगा? संजोग और क्या!’ नंदू आगे कुछ बोला नहीं।’

मेरा स्थान एक अनाथ आश्रम में नहीं होना चाहिए यह नंदू भी मानता है। इस बात से मुझमें उत्साह आया था, पर नंदू की दूसरी बात मुझे ज़्यादा पसंद नहीं आई थी। उसने मेरी तुलना दुर्गा जैसी, अनाथालय में रहती लड़की से की यह मुझे थोड़ा अपमानजनक लगा था। और संजोग की बात से तो मुझे गुस्सा ही आया था। कौन जाने क्यों मेरी आसपास के जगत को मेरे बारे में बात करने के लिए ऐसे ही शब्द याद आते। पहले के कर्म, पीढ़िओं के शाप, पितृ। मुझे कभी अच्छा नहीं लगता।

फिर भी नंदू मेरी चिंता करता था इस बात से मन ही मन मुझे राहत महसूस हुई थी। बड़ी एक राहत तो यह थी कि मुझे उस पीले मकान में अंदर सभ्य के तौर पर रहना नहीं था।

मैं स्वतन्त्र था। अब मुझे किसी को मेरा परिचय देना नहीं था। एक किसी शापित परदादा को अनाथ होकर मौसा या मामा के घर रहना पड़ा था ऐसे किस्से नहीं सुनाए जानेवाले थे। मेरे ऊपर, हमारे वंश के ऊपर लगे किसी अनजान शाप की बात, जो मैंने कभी मानी नहीं थी उसका यहाँ अंत आ जानेवाला था।

मैंने वहाँ ठहरने का निश्चय किया। निर्णय कुछ ऐसा था, बाहर रहना, अंदर किसी के साथ घुलना मिलना नहीं। मैं और मेरा काम। इस मकान में बसे किसी के साथ कुछ जान पहचान नहीं इतना बस। उस मकान के निवासिओं के साथ कोई गाढ़ संबंध न बने इस बात का मुझे ध्यान रखना था।

रात को नंदू ने मुझे अपने पास बुलाया और पूछा, ‘सुबह क्या हुआ था? दुर्गा चिढ़ क्यों गई? नलिनीबहन ने क्या कहा था?’

‘हाँ, वह किस ज़ात की है ऐसा कुछ।’ मैंने जवाब दिया।

नंदू कुछ बोला नहीं। थोड़ी देर मेरी ओर तकता रहा। फिर धीरे धीरे स्पष्ट शब्दों में बोला, ‘स्वयंजाता है मेरी माँ। उसकी ज़ात क्या! धर्मजाति तो हमारे जैसे लोगों की होती हैं। बहन उसका मुँह ध्यान से देखेगी तो भी पता चलेगा कि वह कौन है। तुम ही बताओ इंसान के लिए ऐसा रूप धारण कर उतरना कभी शक्य होनेवाला है!’

मुझे कुछ कहना नहीं था। नंदू को दुर्गा के लिए बुरा लग रहा था। उसके प्रति भाग था यह स्पष्ट दिखाई देता था। फिर भी उसने नलिनीबहन पर गुस्सा नहीं किया था न ही उनके बारे में कुछ बुरा बोला था, यह बात मेरे ध्यान में आई।