चला ही गया होता। नंदू को मिलने भी रुका न होता। बस थैली लेकर चलते बनने की देर थी पर, जहाँ खड़ा था उधर से वापिस मुड़ते ही मैंने पीले मकान वाले चौक की जाली पार कर आती हुई दुर्गा को देखा। पिछली रात उसकी एक झलक देखि थी। आज सुबह वह कुछ अलग ही दिखी। तेज़ गुलाबी रंग के फ्रॉक में सजी दुर्गा को देखते ही मैं अवाक् हो देखता रहा।
इस पृथ्वी पर जन्म लेकर मैंने अनेक सौंदर्य देखे हैं।मैं उनसे अभिभूत भी हुआ हूँ यह स्वीकार करने में भी हिचकिचाऊंगा नहीं। भोर के गुलाबी रंग से लेकर रात के तारे जड़े आकाश की मोहिनी, फूलों के रंग, पंछिओं की उड़ान, या बछड़ों की आँखों का आश्चर्य। इन सब सौन्दर्यों से कभी कभी दिग्मूढ़ भी हुआ हूँ। पर यह! एक अनाथ-आश्रम में ! ऐसी लड़की! शांत, शीतल, अलग।
मैं उसे देखता रह गया। दुर्गा की ऊँगली पकड़कर एक ओर छोटा लड़का और दूसरी ओर एक छोटी डेढ़-दो साल की लड़की चल रहे थे। उनके थोड़े पीछे एक थोड़ा बड़ा लड़का चला आ रहा था। मुझ पर उसकी नज़र पड़ते ही दुर्गा ने उसकी उम्र के हिसाब से थोड़ा छोटा आता फ्रॉक नीचे खींचा और क्षोभ या संकोच के बिना हंसी। वे लोग बाग़ में गए।
मुड़ कर जाने के वक्त ही कौन जाने कौन सा एहसास मुझे बाग़ में ले गया! वहाँ गया और एक झूले पर झूलने लगा। दुर्गा बच्चों को फिसल पट्टी पर फिसला रही थी उसे देखा किया। मुझे एक पल के लिए मन भी हुआ कि झूले से उतरकर बच्चों को झूलने दूँ। पर उससे पहले वे सब फिसल पट्टी छोड़ एक अमरुद के पेड़ के नीचे जाकर फल गिनने लगे।
‘गिनकर दिखाओ कितने हैं ?’ दुर्गा ने बच्चों को पूछा।
‘दुर्गाई, वह देख पका हुआ.’ बच्ची बोली।
‘हाँ, पीला होने को आया है।’ उस बड़े लड़के ने जवाब दिया। वे गिनने के बदले पक्के अमरुद देखने में लीन हो गए।
नंदू ने रात को किया हुआ दुर्गा का वर्णन मुझे याद आया। इन्स्पेक्शन के वक़्त मौन रहने के लिए दुर्गा को समझाना है यह बात किसी ने बहन के नाम से कही थी यह भी मुझे याद आया। जिसे समझने के लिए यहाँ की संचालक बहन इतनी उत्सुक है, नंदू जिसे जगतजननी कहता था, उसे मैं भी ज़रा ध्यान से देखने लगा।
दुर्गा और बच्चे अपनी बातों में मसरूफ थे। थोड़ी देर के बाद झूला छोड़कर मैं वे सब खड़े थे उस ओर चला। इस बार मैंने पीछे के घर से निकलकर तेज़ी से चली आ रही एक थोड़ी श्याम, ज़रा भारी शरीर वाली और भूरे रंग की साड़ी पहनी हुई चालीस साल के आसपास की उम्र की स्त्री को देखा। मैं रुक गया। उन बच्चों का ध्यान अभी भी अमरुद में ही था।
‘क्या कर रहे हो यहाँ, बाहर यहाँ वहाँ भटकने से मना किया है न? स्कूल में छुट्टी क्या हुई कि तुरंत बेलगाम मूर्ख जानवरों की तरह निकल पड़े!’ वह औरत नज़दीक आते बोली। छोटे बच्चों के साथ इतनी सख़्ती से बात करते मैंने शायद ही किसीको सुना होगा। एक-आधा कदम आगे बढ़कर में फिसल पट्टी के पास रुक गया।
छोटे बच्चों ने चौंककर पीछे देखा। उनकी शक्ल से नूर उड़ गया। दुर्गा पीछे देखे बिना शांत रहकर, जवाब दिए बिना अपने साथी बच्चों के हाथ पकड़कर अमरुद देखती खड़ी रही।
‘दुर्गा, तुझे पूछ रही हूँ, सुन रही हो?’ औरत फिर से बोली।
‘क्या?’ दुर्गा ऊब रही हो वैसे बोली और पीछे मुड़ी।
‘क्या, क्या? यह बाहर इधर-उधर भटक रहे हो उसके बारे में पूछ रही हूँ।’ औरत बोली और फिर कहा ‘परसो तुम्हारे चचा इन्स्पेक्शन के लिए आएँगे। तब कोई गड़बड़ नहीं चाहिए, समझी?’
‘बाहर कहाँ घूम रहे हैं। कम्पाउंड में ही तो हैं।’ दुर्गा ने दूसरी बात का जवाब न दिया।
‘कम्पाउंड में ही तो हैं? अच्छा?’ उस औरत ने दुर्गा की नक़ल बनाते हुए कहा, ‘अमरुद चुराने निकले हो यह क्यों नहीं कहती?’
अब दुर्गा का स्वर बदला, ‘देखो नलिनीबहन, झूठा आरोप न लगाइए। अमरुद तो किसीने छुआ भी नहीं।’
‘सामने जवाब देती है? एक लगाउंगी न अभी। …’ नलिनीबहन ने कहा और एक को फटकारनेवाली हो वैसे हाथ उठाया।
दुर्गा ने तुरंत बच्चों के अपनी आड़ में लिया और बोली, ‘किसीको मारना नहीं है। खाली फ़ालतू डांटिए मत।’
खुद को बेवहज गुस्सा क्यों आ रहा था यह न समझ आया हो वैसे नलिनीबहन अकड़ गई, फिर वापस जाने लगीं और दुर्गा को मार न सकने का बदला ज़बान से ले रहीं हो वैसे ज़ोर से बोलीं, ‘कौन जाने किसके पेट की, किस ज़ात की है।’ मैं शर्म से नीचे देख गया।
इस ताने से उस किशोरी के छोटे से हृदय में कितना बड़ा तूफ़ान उठा होगा यह मुझसे बेहतर वहाँ कोई समझ नहीं सकता था। फिर भी आश्चर्य की बात यह थी कि दुर्गा के मुख पर क्रोध के या उल्टा वार करने के कोई चिह्न उभरे नहीं थे। उसने शांत, निर्मल और दृढ़ स्वर में कोई पक्की बात कह रही हो वैसे कहा ‘तुम्हारी ही ज़ात की हूँ।’
ख़तम! तीर छूट गया था। अनर्थ होने का निर्माण था। बहन खड़ी रहीं, आसपास देखकर नीचे पड़ी हुई एक डाली हाथ में ली, दुर्गा की ओर मुड़ी और आगे आकर बोली, ‘क्या कहा? खूब चढ़कर बोल रही है। फिर से बोल तो!’
‘हाँ, तेरी ही ज़ात की हूँ।’ दुर्गा उसी स्वर में फिर से बोल गई। वह ज़रा भी डरी नहीं और हिचकिचाई भी नहीं। छड़ी का घाव झेलने स्वस्थ खड़ी रही। नलिनीबहन एकदम नज़दीक आ गईं।
दुर्गा की स्वस्थता से पराजित होकर, परसो इन्स्पेक्शन के बारे में याद कर, दुर्गा शायद विरोध में खड़ी हो जाएगी उस भय से या जिस भी वजह से पर बहन दुर्गा पर वार न कर सकी। अचानक ही उन्होंने बात बदली। आगे झुककर छोटी करमी को पकड़कर दुर्गा के पीछे से बाहर खींचा और बोली, ‘चोर की बच्ची, अमरुद चुराने हैं? यह ले जा।’ बोलते बोलते ही उन्होंने छड़ी चलाई।
मैंने बराबर देखा था। करमी के मुँह से आवाज़ नहीं निकली थी. वह सिकुड़कर दुर्गा से चिपक गई। दुर्गा ज़रा भी हिली नहीं थी, सिर्फ उसका हाथ आगे आया था। ‘इतनी सी छोटी करमी को …?’ कहकर आगे के शब्द दुर्गा बोली नहीं थी यह भी मुझे बराबर याद है।’
मैं ज़्यादा दूर तो नहीं था। सब दिखे, सुनाई दे उतना ही अंतर था, फिर भी नलिनीबहन के हाथ से छड़ी दुर्गा के हाथ में कैसे आई यह मैं देख नहीं पाया था। दुर्गा का सिर्फ हाथ ही चल रहा था। शरीर स्थिर था। ख़ास कोई गति हुई नहीं थी। सट, सट आवाज़ी आई और पतली डाली की छड़ी टूट गई।
दुसरे पल मैंने देखा तो दुर्गा हाथ में बचा हुआ टुकड़ा ज़मीन पर फ़ेंक रही थी। फिर ज़रा भी अशांत हुए बिना उसने बच्चों का हाथ पकड़कर उन्हें रास्ता दिखाया, ‘चलो’।
मुझे सबसे बड़ा आश्चर्य इस बात से हुआ था कि यह सब करते हुए भी दुर्गा एकदम स्वस्थ रही थी। इतनी शांत, निश्चल, दृढ़ निश्चयवाली और खुद क्या करेगी उसका स्पष्ट निर्णय दिखाती रेखाएँ किसी चेहरे पर कदाचित ही दिखाई देती होंगी।
वहाँ क्रोध भी प्रकट नहीं हुआ था। सट-सट छड़ी चली होने के बावजूद कुछ भी हिंसक नहीं था। बदला लेने का संतोष या फिर आगे क्या होगा इस बात की चिंता कुछ भी वहाँ नहीं था।
वह घटना नहीं घटती तो मैं उस पीले मकान का पड़ौसी बना न रहता। मुझे बराबर याद है। कुछ भी न हुआ हो वैसे दुर्गा बच्चों के साथ बातें करती चली गई थी। नलिनीबहन उसे जाते देखती रही। मैं वहाँ से जाने की तैयारी कर रहा था कि उनकी नज़र मुझ पर पड़ी।
‘तू कौन है, बे?’ स्वस्थता धारण करने की कोशिश करते हुए नलिनीबहन ने पूछा।
मैं कुछ उत्तर दूँ उससे पहले हम दोनों की नज़र बाग़ के छोर पर साइकिल टिकाते नंदू पर पड़ी।
‘बहन, मेरे भाईबंधु का लड़का है। भतीजा ही मान लीजिए।’ बोलते हुए नंदू हमारे पास आया।
नलिनीबहन कुछ बोली नहीं। मुझे ध्यान से देख रही हो वैसे मेरी ओर देखा और नंदू से कहा, ‘नंदू, तू ऑफिस में आ।’ फिर ऑफिस की ओर चली गई। जाते जाते बोली, ‘भानजा हो या भतीजा, तेरा जो भी है उसे रोककर रखना। मुझे मिले बिना वापिस चला न जाए।’
मुझे पता था कि नंदू का सगा या उसके मित्र का बीटा हु यह बात नलिनीबहन ने सिर्फ सुनी थी। माननी अभी बाकी थी। नंदू भी यह बात न समझे ऐसा तो नहीं था।
इस बात की शायद जांच होगी। उसका सामना करने के लिए मैं तैयार नहीं था। इस सब से अधिक तो अनाथ-आश्रम के नाम से जाने जाते किसी स्थान पर रहने के लिए मेरा मन कभी राज़ी होनेवाला न था। मेरे मम्मी-पापा नहीं। कोई नज़दीकी रिश्तेदार नहीं। फिर भी कोई मुझे अनाथ कहे यह मुझे किसी सूरत में मंज़ूर नहीं था।
अनाथ कहलाते मानव संतानों के बारे में मेरे मन में एक पक्की धारणा थी। मैं जिस तरह से समझता था कि वे जन्मते थे वैसे मैं नहीं जन्मा था। मामी का घर छोड़ने के कारणों में मुख्य, आस-पड़ोस से सुनना पड़ता यह ‘अनाथ’ शब्द ही तो था!
नंदू बहन की कचहरी में गया। नंदू की खोली की ओर जाते ही मैं अकेले में बोल पड़ा, ‘चला जाऊँगा। यहाँ नहीं रहूँगा।’
बड़ी देर बाद नंदू खोली पर आया कि तुरंत मैंने मन की बात उसे कही। ‘मुझे यहाँ नहीं रहना।’
वह मेरी ओर देखकर हंसा। मैंने फिर से कहा, ‘आप भले ही हँसिए, पर मैं यहाँ से चला जाऊँगा।’
‘चले जाना, पर कहाँ जाएगा मुन्ना?’ नंदू ने ज़रा भी ताना मारे बिना बिलकुल सहज तरीके से पूछा। ‘घर वापिस जाना हो तो बताना। मैं ही छोड़ आऊंगा। इसके आलावा यह नंदू तुझे और कहीं जाने नहीं देगा। स्टेशन पर रहने का ख़याल हो तो भूल जाना। ऐसा सुन्दर चेहरा लेकर तुझसे वहाँ रहा जा सके यह बात बननेवाली नहीं।’
नंदू की बात मुझे सच लगी थी। वापिस जाने से मामी की और मेरी मुश्किलें बढ़ने के अलावा कुछ होनेवाला नहीं था। स्टेशन पर या कहीं और पुलिस या उनके प्रीति-पात्र मुझे चैन से रहने दे यह होनेवाला नहीं था। मुझे मुश्किल में पड़ा देख नंदू मेरे पास आया।अपने अलग अंदाज़ में मुझे समझाने बैठा, ‘सुन, तुम्हें यहां रखना भी नहीं है। यह नंदू सुबह से शहर गया था वह तेरे लिए। महेशभाई को कहकर तेरे लिए सब व्यवस्था कर दी है। चल खड़ा हो।’ कहकर उसने मेरी पीठ थपथपाई।
कौन महेशभाई और क्या आयोजन यह समझना अभी बाकी था। नंदू के साथ जाऊं तो समझ में आनेवाला था। दरवाज़े की ओर चलते नंदू बड़बड़ाते हुए बोला, ‘बहन ने आज बड़ी गड़बड़ कर दी। मेरी माँ को परेशान किए कुछ भला नहीं होनेवाला। पर वह भी बेचारी क्या करे! जो काम उनको करना है वह सरकार उन्हें दे नहीं रही। नहीं करना है वह गले पड़ा है। आख़िर हम सब इंसान हैं।’ वह सुबह के प्रसंग के बारे में बात कर रहा था यह समझ में आया।
हम मुख्य द्वार से बाहर निकले। रास्ते में नंदू अपने तरीके से जो भी बड़बड़ाया था उससे दो बातें समझ आतीं थीं। एक तो यह कि मेरी और नंदू की कोई पहचान नहीं यह बात नंदू नलिनीबहन से छुपा न सका था। और दूसरी यह कि कोई महेशभाई नामक गृहस्थ की, झील के किनारे किले की दीवार से सटकर लगी ज़मीन पर मेरे लिए साइकिल रिपेरिंग और चाय-पानी का छोटा सा ठेला लगाने की व्यवस्था नंदू कर आया था। दरवाज़े से दाहिनी ओर थोड़े दूर लकड़ियाँ, पट्टियाँ, लोहे के एंगल और थोड़ा प्लास्टिक का कपड़ा ये सब पड़े थे। नंदू मुझे वहाँ ले गया और कहने लगा, ‘यह ज़मीन और ये औज़ार सब महेशभाई के हैं। उन्होंने तुम्हें यहां जो करना हो वह करने के लिए अनुमति दी है, पर मुफ्त कुछ भी नहीं। तुझसे हो सके उतना भाड़ा देना है।’
मैं वहाँ पड़ी चीज़ें देखता रहा। कुछ बोला नहीं। नंदू को लगा कि थोड़ा घबराया हूँ। वह फिर बोलने लगा ‘पैसे अभी नहीं मांगेंगे। तुम कमाओ तब थोड़ा देते आना।वे नवाबी इंसान हैं। यहाँ वसूली करने नहीं आएँगे।हमें खुद उनके ऑफिस जाकर दे आना होगा। नहीं जा सको तो मुझे दे देना मैं पहुंचा दूंगा।’
मैंने अभी भी कोई जवाब न दिया इसलिए नंदू की अधीरता बढ़ी। रोने जैसी आवाज़ में वह कहने लगा, ‘निमु बहन ने मुझे तेरी ज़िम्मेदारी सौंपी है भाई, मैं तुम्हें और कहीं जाने नहीं देनेवाला। अंदर तो मैं तुम्हें रख नहीं पाऊंगा। मुन्ना, मेरी मान। साइकिल पंचर ठीक करना और चाय-पानी का ठेला लगाना। अपने पैर पर खड़ा हो जा फिर चले जाना अपने रास्ते। यह नंदू तुझे रोकेगा नहीं।’
मैंने नीचे झुककर लोहे की एंगल उठाई। नंदू देखता रहा और पूछा, ‘खुदाई के औज़ार होंगे?’
उस दिन का काम ख़तम होने के बाद हम उसकी खोली की ओर जा रहे थे तब नंदू ने थोड़ी नर्म आवाज़ में कहा, ‘तुझे यहां नहीं अच्छा लगेगा मैं जानता हूँ मुन्ना, मुझे भी सब साफ़ समझ आता है कि यह जगह तेरे लिए नहीं है। यह काम भी तेरा नहीं है। इतना सुन्दर चेहरा! एक तू और एक वह मेरी माँ। तुम दोनों को तो यहाँ आना भी क्यों होगा? संजोग और क्या!’ नंदू आगे कुछ बोला नहीं।’
मेरा स्थान एक अनाथ आश्रम में नहीं होना चाहिए यह नंदू भी मानता है। इस बात से मुझमें उत्साह आया था, पर नंदू की दूसरी बात मुझे ज़्यादा पसंद नहीं आई थी। उसने मेरी तुलना दुर्गा जैसी, अनाथालय में रहती लड़की से की यह मुझे थोड़ा अपमानजनक लगा था। और संजोग की बात से तो मुझे गुस्सा ही आया था। कौन जाने क्यों मेरी आसपास के जगत को मेरे बारे में बात करने के लिए ऐसे ही शब्द याद आते। पहले के कर्म, पीढ़िओं के शाप, पितृ। मुझे कभी अच्छा नहीं लगता।
फिर भी नंदू मेरी चिंता करता था इस बात से मन ही मन मुझे राहत महसूस हुई थी। बड़ी एक राहत तो यह थी कि मुझे उस पीले मकान में अंदर सभ्य के तौर पर रहना नहीं था।
मैं स्वतन्त्र था। अब मुझे किसी को मेरा परिचय देना नहीं था। एक किसी शापित परदादा को अनाथ होकर मौसा या मामा के घर रहना पड़ा था ऐसे किस्से नहीं सुनाए जानेवाले थे। मेरे ऊपर, हमारे वंश के ऊपर लगे किसी अनजान शाप की बात, जो मैंने कभी मानी नहीं थी उसका यहाँ अंत आ जानेवाला था।
मैंने वहाँ ठहरने का निश्चय किया। निर्णय कुछ ऐसा था, बाहर रहना, अंदर किसी के साथ घुलना मिलना नहीं। मैं और मेरा काम। इस मकान में बसे किसी के साथ कुछ जान पहचान नहीं इतना बस। उस मकान के निवासिओं के साथ कोई गाढ़ संबंध न बने इस बात का मुझे ध्यान रखना था।
रात को नंदू ने मुझे अपने पास बुलाया और पूछा, ‘सुबह क्या हुआ था? दुर्गा चिढ़ क्यों गई? नलिनीबहन ने क्या कहा था?’
‘हाँ, वह किस ज़ात की है ऐसा कुछ।’ मैंने जवाब दिया।
नंदू कुछ बोला नहीं। थोड़ी देर मेरी ओर तकता रहा। फिर धीरे धीरे स्पष्ट शब्दों में बोला, ‘स्वयंजाता है मेरी माँ। उसकी ज़ात क्या! धर्मजाति तो हमारे जैसे लोगों की होती हैं। बहन उसका मुँह ध्यान से देखेगी तो भी पता चलेगा कि वह कौन है। तुम ही बताओ इंसान के लिए ऐसा रूप धारण कर उतरना कभी शक्य होनेवाला है!’
मुझे कुछ कहना नहीं था। नंदू को दुर्गा के लिए बुरा लग रहा था। उसके प्रति भाग था यह स्पष्ट दिखाई देता था। फिर भी उसने नलिनीबहन पर गुस्सा नहीं किया था न ही उनके बारे में कुछ बुरा बोला था, यह बात मेरे ध्यान में आई।